बात और भाषा परस्पर जुड़े होते हैं, किंतु कभी-कभी भाषा के चक्कर में ‘सीधी बात भी टेढ़ी हो जाती हैं? कैसे?
बात और भाषा दोनों परस्पर जुड़े रहते है किन्तु कभी कभी कवि लेखक आदि अपने बात को प्रभाव ढग से बताने के लिए अपनी भाषा को ज्यादा ही अलकृत बना रहेता है या शब्दों के चयन में उलझ जाया करते है भाषा के चक्कर में वे अपनी मूल बात को प्रकट ही नही हो पाता है क्षोता या पाठक उनके शब्द जाल में उलझ कर रह जाते है और सीधी बात भी टेढी होया करती है I
भाषा को ‘सहूलियत’ से बरतने से क्या अभिप्राय हैं?
कविता और बच्चे को समानांतर रखने के क्या कारण हो सकते हैं?
बात (कथ्य) के लिए नीचे दी गई विशेषताओं का उचित बिंबों/मुहावरों से मिलान करें।
बिंब/मुहावरा |
विशेषता |
(क) बात की चूड़ी मर जाना |
कथ्य और भाषा का सही सामंजस्य बनना |
(ख) बात की पेंच खोलना |
बात का पकड़ में न आना। |
(ग) बात का शरारती बच्चे की तरह खेलना |
बात का प्रभावहीन हो जाना |
(घ) पेंच को कील की तरह ठोंक देना |
बात में कसावट का न होना। |
(ङ) बात का बन जाना |
बात को सहज और स्पष्ट करना |
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व्याख्या करें
ज़ोर ज़बरदस्ती से बात की चूड़ी मर गई और वह भाषा में बेकार घूमने लगी।
बात से जुड़े कई मुहावरे प्रचलित हैं। कुछ मुहावरों का प्रयोग करते हुए लिखें।
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