HomeKnow IndiaHindi Sahityaउत्तर छायावाद का परिवेश और प्रवृत्तियाँ: साहित्यिक विश्लेषण

उत्तर छायावाद का परिवेश और प्रवृत्तियाँ: साहित्यिक विश्लेषण

‘उत्तर-छायावाद’ हिन्दी साहित्य जगत की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है। छायावाद का परवर्ती रूप हिन्दी साहित्य में ‘उत्तर-छायावाद’ के नाम से पुकारा जाता है। यह एक अल्पकालिक काव्यधारा है जो अपनी अल्पकालिकता में भी विशिष्ट है क्योंकि छायावाद और प्रगतिवाद के बीच एक कड़ी के रूप मे इसका प्रदेय प्रशंसनीय है।

इस अध्याय में ‘उत्तर- छायावाद’ के आविर्भाव के कारणों पर प्रकाश डालने के लिए तद्‌युगीन परिवेश की चर्चा के साथ-साथ इसकी प्रवृत्तियों का भी विश्लेषण किया गया है। ‘उत्तर-छायावाद’, ‘परिवेश और प्रवृत्तियाँ’ नामक यह अध्याय हिंदी साहित्य में ‘उत्तर-छायावाद’ के महत्व को प्रतिपादित करने की दिशा में एक लघु प्रयास है जो निश्चित रूप से विद्यार्थियों का मार्गदर्शन करेगा।

Table of Contents

उत्तर छायावाद : एक परिचय

हिन्दी साहित्य जगत में छायावाद के उपरांत या उसके समानांतर सन्‌ १९३० के आसपास जो काव्य-प्रवृत्ति विकसित हुई उसे ‘उत्तर-छायावाद’ की संज्ञा दी गई। छायावाद का ‘दूसरा उन्मेष’’उत्तर-छायावाद’ के रूप में उभर कर आया जिसने प्रगतिवाद के लिए ठोस भूमि तैयार करने मे सराहनीय भूमिका अदा की। ‘उत्तर-छायावाद’ के स्वरूप को स्पष्ट करने से पूर्व ‘उत्तर-छायावाद’ और छायावादोत्तर’ जैसे समानार्थी शब्दों में अर्थ के आधार पर जो सूक्ष्म अंतर है उसे स्पष्ट कर देना अत्यंत आवाश्यक है क्योंकि इन शब्दों को हिंदी साहित्य में कहीं पर समान माना गया, कहीं इन्हें एक दूसरे से भिन्न माना गया है।

‘उत्तर-छायावाद’ शब्द छायावाद के उपरांत विकसित होने वाली दो काव्यधाराओं ‘राष्ट्रीय-सांस्कृतिक काव्यधारा’ और ‘वैयक्तिक कविता’ के संदर्भ में रूढ़ हो गया है और वहीं ‘छायावादोत्तर’ के अंतर्गत ‘उत्तर-छायावाद’ के साथ वे समस्त काव्यधाराएँ आ जाती है जो छायावाद के बाद अस्तित्व में आई जैसे उत्तर-छायावाद, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, नई कविता इत्यादि। निम्नलिखित चित्र द्वारा इस बात को बखूबी समझा जा सकता है।

उत्तर छायावाद
उत्तर छायावाद

इस प्रकार ’उत्तर छायावाद’ “अपने सामान्य अर्थ में छायावाद के उत्तर चरण का बोध करता है किंतु प्रयोग की दृष्टि से इसके अंतर्गत छायावादोत्तर रचित राष्ट्रीय सांस्कृतिक कविताएँ तथा वैयक्तिक प्रगीतों की वह धारा आती है जिसे जवानी व मस्ती का काव्य कहा गया है।” (डॉ. अमरनाथ:- हिंदी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली, पृष्ठ ८१) अपने-अपने इतिहास ग्रंथों में डॉ. नंदकिशोर नवल, आ. हजारीप्रसाद द्विवेदी, विजयमोहन शर्मा, रामस्वरूप द्विवेदी, शिवदान सिंह चौहान ने भी ‘उत्तर-छायावाद’ का उपर्युक्त अर्थ ही ग्रहण किया है।

यथा १-“पाँचवी काव्यधारा को प्राय: उत्तर छायावादी, यानि छायावाद का परवर्ती रूप कहा जाता है। आ. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने इसे छायावाद का दूसरा उन्मेष कहा है। लेकिन यह वस्तुत: स्वछंद काव्यधारा ही है, जैसी की आ. रामचन्द्र शुक्ल की मान्यता है – इसके अंतर्गत उग्र राष्ट्रीय चेतना थी और जवानी की मस्ती का काव्य भी था।“ (नंदकिशोर नवल- आधुनिक हिंदी कविता का इतिहास,पृष्‍ठ-२५3) “उत्तर-छायावादी’’ साहित्‍य छायावादीकाव्‍य और उसके समानांतर लिखा गया आधुनिक सृजनशीलता की श्रेष्‍ठतम उपलब्धि है। —- इनकी रुचि तत्‍कालिक समाधानों में अधिक थी संदर्भ चाहे प्रेम के हों- राष्‍ट्रीय स्‍वाधीनता संग्राम के हो या कि फिर मानव क्रांति के। — छायावादी के संश्लिष्‍ट जीवनानुभव उत्तर-छायावाद में सीधे-सरल अधिक हो चले। ‘मस्‍ती का काव्‍य’ और ‘राष्‍ट्रीय भाव धारा’ इसकी विशेषता है।(रामस्‍वरुप चतुर्वेदी, हिंदी साहित्‍य और संवेदना का विकास-पृष्‍ठ १८४-१८८) ‘’छायावादी काव्‍य के उत्‍कर्ष और ह्रास की प्रक्रिया हिंदी कविता के विकास क्रम की एक कड़ी है। इसी समय प्रगतिवादी विचारधारा राष्‍ट्रीय चेतना का नया संस्‍कार ग्रहण करने लगी थी और स्‍वछंतावादी व्‍यक्तिवाद ने एक नई दिशा पकड़ी।‘’(शिवदान सिहं चौहान-हिंदी साहित्‍य के अस्‍सी वर्ष-पृष्‍ठ- ९६-९७) इस प्रकार ‘उत्तर-छायावाद’ के अंतर्गत राष्‍ट्रीय सांस्‍कृतिक काव्‍य धारा और व्‍यक्तिवादी गीति काव्‍य को ही सम्मिलित किया गया है।

डॉ. गणपति चंद्र ने उत्तर-छायावाद को तीन धाराओं में बांटा है:-

  1.  व्‍यक्ति चेतना प्रधान
  2. राष्‍ट्रीय चेतना प्रधान
  3. समष्टि चेतना प्रधान

(डॉ. गणपतिचंद्र गुप्‍त – हिंदी साहित्‍य का वैज्ञानिक इतिहास, द्वितीय खंड, आधुनिक काल सन् १८५७ से अब तक)

डॉ. नगेंद्र ने भी ‘छायावादोत्तर काव्‍य’ का वर्गीकरण निम्‍नलिखित ढंग से किया है:-
छायावादोत्तर काव्‍य

  1. उत्तर-छायावद
    • राष्‍ट्रीय सांस्‍कृतिक काव्‍यधारा
    • व्‍यक्तिवादी काव्‍यधारा
  2. प्रगतिवाद
  3. प्रयोगवाद
  4. नई कविता
    (डॉ. नगेन्‍द्र:- हिंदी साहित्‍य का इतिहास- पृष्‍ठ ६०८)

कतिपय विद्वानों ने ‘उत्तर-छायावाद’ के लिए अलग-अलग नाम भी दिए हैं जैसे डॉ. बच्‍चन सिंह ने ‘उत्तर-स्‍वछन्‍दतावाद युग’ के अंतर्गत ‘उत्तर-छायावादी काव्‍य’ का विभाजन कुछ इस प्रकार किया है :-

उत्तर-स्‍वछंदतावाद युग ———– (१९३८-अब तक)

  1. प्रगति-प्रयोग का पूर्वाभाष (वैयक्तिक, विप्‍लववादी और गांधीवादी रचनाएं)
  2. प्रगतिवाद
  3. प्रयोगवाद-नयी कविता
  4. मोहभंग-विकारग्रस्‍त प्रवृत्तियां
  5. जनवादी आंदोलन
  6. साहित्‍य की नयी दिशाएं
    (डॉ. बच्‍चन सिंह- हिंदी साहित्‍य का दूसरा इतिहास- पृष्‍ठ ३९८)

इस प्रकार डॉ. बच्‍चन सिंह ने ‘उत्तर-छायावाद’ को ‘प्रगति’-प्रयोग का पूर्वाभास- कहा और ‘राष्‍ट्रीय-सांस्‍कृतिक काव्‍यधारा’ को ‘विप्‍लववादी’, ‘गांधीवादी रचनाएं’ कहा, जबकि वैयक्तिक काव्‍यधारा के नामकरण में कुछ परिवर्तन नहीं किया। ये सही है कि ‘उत्तर-छायावाद’ ने प्रगतिवाद एवं प्रयोगवाद के लिए परिवेश तैयार किया उसे कालांतर में नई जमीन दी लेकिन सन् १९३० के आसपास जो काव्‍य-प्रवृत्ति हिंदी साहित्‍य में उभरी उसके लिए ‘’उत्तर-छायावद’’ नाम ही उपयुक्‍त है। इस विस्‍तृत चर्चा का उद्देश्‍य केवल ‘उत्तर-छायावद’ और ‘छायावादोत्तर’ के सूक्ष्‍म अंतर को स्‍पष्‍ट करते हुए केवल यही सिद्ध करना था कि हिंदी साहित्‍य में ‘उत्तर’छायावाद’ का प्रयोग विशेष काव्‍य-प्रवृत्ति के लिए किया जाता है जिसका छायावाद के सामानांतर सन् १९३० के आसापास हुआ जिसमें काव्‍य–चेतना का एक पक्ष राष्‍ट्रीय-सांस्‍कृतिक चेतना से युक्‍त था तो दूसरा पक्ष प्रणय, मस्‍ती और मादकता की जमीन पर विकसित व्‍यक्तिवादी चेतना से।

छायावाद और उत्तर-छायावाद

स्‍वभाव से विकासप्रिय मानव-मन किसी एक मान्‍यता, एक आदर्श, एक परंपरा के साथ बंधा नहीं रह सकता। अतएव परिवर्तन स्‍वाभाविक होने के साथ अनिवार्य भी है। एकरस जीवन गतिशून्‍य होकर समाप्‍त हो जाता है। यह बात साहित्‍य पर भी लागू होती है। अत: युगानुरुप साहित्‍य के संदर्भ बदलते हैं और नए साहित्‍य का, प्रवृत्तियों का विकास होता है। अपने चरमोत्‍कर्ष को प्राप्‍त कर लेने के पश्‍चात कोई भी काव्‍यधारा पतनोन्‍मुख, या ढलान की ओर अग्रसर हो जाती है या यूं कहें कि उससे अन्‍य काव्‍य-प्रवृत्तियों का विकास होता है। ‘छायावाद’ के चरमोत्‍कर्ष के समय ‘उत्तर’-छायावाद’ का उदय इस बात की ओर संकेत करता है।

छायावादी काव्‍य सांस्‍कृतिक नवजागरण लेकर आया था जिसकी समय-सीमा सन् १९१८ से लेकर १९३६ तक स्‍वीकार की गयी है। द्विवेदी युग की इतिवृत्तात्‍मक, उपदेश प्रधान एवं नीरस काव्‍य शैली के विरोध में छायावाद का उदय हुआ। छायावाद एक ऐसा महान आंदोलन था जिसने हिंदी साहित्‍य में भाव एवं शैली-जगत में एक जबरदस्‍त क्रांति उपस्थित कर दी थी। प्रसाद, पंत, निराला और महादेवी जैसे काव्‍य-रत्‍न हिंदी साहित्‍य को छायावाद की ही अमूल्‍य देन है। आधुनिक हिंदी साहित्‍य का ‘स्‍वर्ण-युग’ कहलाने का गौरव ‘छायावाद’ को ही है। ‘’यह स्‍वर्णकाव्‍य, यह सौंदर्य कोष, अपने में ‘आदान’ के तत्व अधिक रखता है या ‘प्रदान की उसमें शक्ति है ?’’

इस प्रश्‍न का उत्तर देते हुए प्रो विश्‍वंभरनाथ उपाध्‍याय कहते हैं “कला की जो साधना,सौंदर्य का जो उन्‍मेष कल्‍पना का जो वैभव नवीन नैतिक मूल्‍यों की प्रतिष्‍ठा का जो प्रयत्‍न हमें इस काल में मिलता है, वह अपने आप में कम नहीं है। — छंद, भाषा शैली, संगीत, माधुर्य, कल्‍पना प्रत्‍येक दृष्टि से उसने क्रांति का एक स्‍तर बनाया, सौंदर्य की अनुपम मुद्राओं के चित्रण से उसने हमारा काव्‍य उपवन सजाया, यह सजावट कोरी सजावट न थी उसने एक ओर मानवता के सौरभ से दिगंत को सुरभित किया, जीवनमात्र के लिए करुणा का वरदान दिया, कण-कण में एक ही सत्ता का दर्शन कर हमें विश्‍व मानववाद की ओर बढ़ाया— नवीन युग का अभिनंदन किया— मनुष्‍य के प्रति अमर अनुराग उत्‍पन्‍न करनेवाले तत्व उपस्थित हैं।‘’ (देखिए सरजूप्रसाद मिश्र:- आधुनिक कविता के चार दशक,’छायावाद का पतन’ विश्‍वंभर उपाध्‍याय जी का मत, पृष्‍ठ- १९०-१९०) इसी तरह छायावद ने ‘‘ भाषा को नवीन हाव-भाव, नवीन अश्रु- हास और नवीन विनम्र कटाक्ष प्रदान किए जिसने हमारी कला को असंख्‍य अनमोल छायाचित्रों में जगमगाकर दिया, और अंत में जिसने कामायनी का समृद्ध रुपक, पल्‍लव और युगांतर की कला, नीरजा के अश्रु – गीले गीत, परिमल और अनामिका की अम्‍बर-चुम्‍बी उडा़न की उस कविता का गौरव अक्षय है।‘’ (डा. नगेन्‍द्र का मत- (वही)- पृष्‍ठ १९३)

इसमें संदेह नहीं कि छायावादी काव्‍य का गौरव अक्षय है लेकिन सन् १९३० के बाद जो परिवर्तन हुए उससे छायावादी कवियों को भी यह एहसास हो गया था कि युगानुरूप अब कविता को अपना मार्ग बदलना होगा और यह काम “उत्तर-छायावाद’’ ने किया । उत्तर-छायावाद का लक्ष्‍य छायावादी काव्‍य को बदलना तथा एक जागृत युग की पृष्‍ठभूमि तैयार करना था क्‍योंकि छायावाद की अंतर्मुखी चेतना के सूक्ष्‍म, वायावी काल्‍पनिक और रोमानी जगत के प्रति बढ़ते हुए आग्रह को देखकर कवि का अंतर्मन विद्रोह कर उठा । कवि ने यह स्‍पष्‍ट अनुभव किया कि मात्र भावुकता के मसृण, रंगीनी और मादक डोरों से जीवन की वा‍स्‍तविकताओं को बांधा नहीं जा सकता, शाश्‍वत और उदात्ता के गीत गाकर क्षणिकता और लघुता का निराकरण संभव नहीं। व्‍यक्ति और उसके हर्ष-विषाद, जय-पराजय के यथार्थ रूप का मूल्‍यांकन, काव्‍य माना गया जिससे काव्‍य में वैयक्तिक कविता का आविर्भाव हुआ तो वहीं दूसरी ओर तीव्र होते स्‍वाधीनता—संग्राम में अपना सर्वस्‍व न्‍यौछावर करने की प्रवृत्ति ने राष्‍ट्रीय सांस्‍कृतिक कविता के विकास में महत्‍वपूर्ण भूमिका अदा की ।


क्‍या आप जानते हैं ?
समय की चोट खाकर छायावाद की अंतर्मुखी चेतना, तत्व-विधान और वायवीय कल्‍पना के आकाशीय जगत को छोड़कर यर्थाथ की धरा पर जीवन के मूल्‍यों का महत्‍व आंकने लगी और स्‍वयं छायावादी कवि भी इस बात का समर्थन करते नज़र आए ।


“छायावादी कवियों को यह एहसास हो गया था कि छायावाद को जो कुछ करना था वह कर चुका है। अत: नई ऐतिहासिक आवश्‍यकताओं के फलस्‍वरूप उन्‍हें नयी काव्‍य वस्‍तुओं और नए रूपान्‍वेषण की आवश्‍यकता हुई जिससे काव्‍य-प्रवृत्तियां उत्तर छायावाद की ओर उन्‍मुख हुई। (डा. बच्‍चन सिंह-हिंदी साहित्‍य का दूसरा इतिहास – पृष्‍ठ ३९७), स्‍वयं पंत जी ‘रूपाभ’ में कहते हैं कि “इस युग की कविता सपनों में नहीं पल सकती । इसकी जड़ों को अपने पोषण के लिए धरती का आश्रय लेना ही पड़ेगा —— छायावाद के पास भविष्‍य के लिए उपयोगी, नवीन आदर्शों का प्रकाशन, नवीन भावना का सौंदर्य-बोध और नवीन विचारों का रस नहीं था । व‍ह काव्‍य न रहकर अलंकृत संगीत का बन गया था ।” (पंत के विचार-डा. देशराज सिंह भाटी- समकालीन हिंदी कविता-पृष्‍ठ-१) इसी प्रकार महादेवी वर्मा अपने विचार व्‍य‍क्‍त करती हुई कहती है:- “छायावाद ने कोई रूढिगत आध्‍यात्‍म या वर्गगत सिद्धांतों का संचय न देकर हमें केवल समष्टिगत और सूक्ष्‍मगत सौंदर्य सता की ओर ही जागरूक कर दिया था। इसी से उसे यथार्थ रूप में ग्रहण करना हमारे लिए कठिन हो गया ।” (‘महादेवी वर्मा के विचार’ (वही.)) इस प्रकार अनेक विद्वानों ने छायावाद के पतन और यथार्थ से उन्‍मुख होने की दलीलें पेश की। डा. देशराज ने ‘छायावाद का पतन’ नामक अपनी पुस्‍तक में इसका विस्‍तृत वर्णन किया है। ‘छायावाद ने सौंदर्य की खोज तो की लेकिन जीवन की समालोचना न की। छायावादी काव्‍य ने उन सामाजिक और राष्‍ट्रीय तथा अंतर्राष्‍ट्रीय गतिविधि की ओर ध्‍यान न दिया जिन से जीवन कुचला जा रहा था। इस प्रकार ‘ले चल मेरे नाविक मुझे भुलावा देकर’ की तर्ज पर छायावाद पर पलायनवादी होने के भी आरोप लगे । लोकसंवेदना का तिरस्‍कार ही छायावाद के पतन के प्रमुख कारण हैं जिससे काव्‍य की दिशा वैयक्तिक कविता और राष्‍ट्रीय—चेतना से विकसित होती हुई अंतत: प्रगतिवाद और प्रयोगवाद तक पहुंची ।

उत्तर-छायावाद के आविर्भाव के कारण खोजते समय प्राय: यही कहा गया कि यह छायावाद विरोधीपृष्‍ठभूमि तैयार कर रहा था और छायावाद की परंपरा से कटकर आया है। वस्‍तुत: ऐसा कहना अति सरलीकरण होगा क्‍योंकि अपने वास्तिवक रूप में छायावाद की परंपरा से कटकर आया है। वस्‍तुत: ऐसा कहना अति सरलीकरण होगा क्‍योंकि अपने वास्‍तविक रूप में यह छायावाद का ही विकास था । एक ओर यह छायावाद से जुड़ा भी है और दूसरी ओर उससे अलग भी। यहां यह स्‍पष्‍ट कर देना भी आवश्‍यक है कि सभ्‍यता और संस्‍कृति के विकास में इतिहास ने आज तक हमें यह अधिकार नहीं दिया कि हम किसी भी युग को शाश्‍वत या श्रेष्‍ठ तथा अन्‍य युगों को हीन कह सके । प्रत्‍येक नई सूचना एक नया विकास लेकर आती है और वह संपूर्ण मानवता का विकास होती है, तत्‍कालीन परिवेश की मांग होती है। प्रत्‍येक नया युग इतिहास का अगला अध्‍याय होता है और काव्‍य उसे ही वाणी देता है। इस दृष्टि से हम कह सकते हैं कि छायावादी काव्‍य का गौरव अक्षय है जिसका चरमोत्‍कर्ष ‘कामायनी’(प्रसाद) में परिलक्षित हुआ और पंत ने ‘युगांत’ के माध्‍यम से यह घोषणा कर दी थी कि युग की मांग के अनुरूप अब छायावादी काव्‍य को अपनी दिशा बदलनी होगी। दिशा-परिवर्तन का यह क्रम सन् १९३० के आस-पास ही आरंभ हो गया था जिसकी चर्चा हम परिवेश के अंतर्गत करेंगे।

Kamayani


क्‍या आप जानते हैं ?
किसी समृद्ध काव्‍य के उत्तर पक्ष या संक्रांतिकाल में परंपरा का पूरी तरह उच्‍छेदन नहीं हो पाता। वहां पुराने अवशेष और नए सूत्र एक साथ मचलते रहते हैं। ‘उत्तर-छायावाद’ के संदर्भ में भी यही बात लागू होती है क्‍योंकि यह छायावाद का ही तो ‘उत्तरी-पक्ष’है, जहां छायावादी तत्व विद्यमान भी है’ और छायावाद से अलगाव भी दृष्टिगोचर होता है।


उत्तर छायावाद : परिवेश

प्रत्‍येक साहित्‍य अपने युग का जीवंत दस्‍तावेज होता है या यूं कहें कि प्रत्‍येक युग का साहित्‍य अपने युग की सच्‍ची कहानी कहता है क्‍योंकि साहित्‍य के निर्माण में युगीन परिवेश का महत्‍वपूर्ण योगदान होता है और यह युगीन परिवेश राजनीति, समाज, संस्‍कृति, साहित्‍य और कला के मूल्‍यों द्वारा निर्मित होता है। अतएव युग विशेष के साहित्‍य की संवेदना को समझने के लिए तत्‍कालीन परिवेश का ज्ञान अनिवार्य हो जाता है । युग की विषमताएं एवं आकाक्षाएं साहित्‍यकार के माध्‍यम से काव्‍य के स्‍वरूप को निर्धारित करती है और उसे आकार प्रदान करती है। साहित्‍यकार युगीन परिवेश से प्रेरणा ग्रहण कर नए युग के स्‍वप्‍न संजोता है और उसे साकार करनेके लिए साहित्‍य को माध्‍यम के रूप में चुनता है। अत: किसी भी युग विशेष के साहित्‍य के अध्‍ययन में युगीन –परिवेश की चर्चा की अनिवार्यता पर प्रश्‍नचिन्‍ह नहीं लगाया जा सकता क्‍योंकि “किसी युग के साहित्‍य में नवीन साहित्यिक प्रवृत्तियों का उदय चमत्‍कारिक सिद्धि के रूप में एकाएक नहीं हुआ करता, अपितु उसका अंकुर गहनतम पर्तों के नीचे, विषम वातावरण और विरोधी परिस्थितियों के मध्‍य जूझते अक्षय, विलक्षण और शक्तिशाली बीज का परिणाम होता है जो अनुकूल परिस्थितियों से बल अर्जित कर नव जीवन की उमंग और लालसा के साथ अंकुरित-पल्लिवत तथा समय आने पर पुष्पित हो उठता है। (डा. देवराज शर्मा पथिक’-हिंदी की राष्‍ट्रीय काव्‍य धारा-एक समय अनुशीलन- पृष्‍ठ- ६७)

हिंदी साहित्‍य में छायावाद के उपरांत उत्तरछायावाद के विकास में तत्‍कालीन परिवेश की महत्‍वपूर्ण भूमिका रही है। बीसवीं शताब्‍दी के  चौथे दशक में जो उत्तर-छायावादी कवि उभरकर सामने आये वे भारतीय इतिहास के उस दौर की देन हैं जब भारतीय स्‍वाधीनता आंदोलन में युवकों की शिरकत से एक नया उभार आया था। इनकी जवानी की मस्‍ती में सामाजिक मंगलाकांक्षा का भाव भी निहित था, जो देश पर खुद को न्‍यौछावर करने के लिए भी तैयार था। यह दशक बहुत ही उथल-पुथल से भरा हुआ था जिसने काव्‍य जगत में आदर्शोन्‍मुख छायावाद को यथार्थोन्‍मुख होने के लिए विवश कर दिया। सन् १९३६ में प्रकाशित अपने काव्‍य—संग्रह का नाम युगांत रखकर सुमित्रानंदन पंत ने एक युग के अंत की घोषणा कर दी थी।

सन् १९३० से सन् १९३५ तक हमारा राजनीतिक जीवन भी निराशाओं की कहानी मात्र था। राजनीति के क्षेत्र में गांधीजी सक्रिय थे। १९३० में गांधीजी  की प्रसिद्ध दाण्‍डी-यात्रा आरंभ हुई। नमक-कानून तोड़ा गया जिससे विद्रोह की चिंगारी सारे देश में आग की लपट की तरह फैल गई। सविनय अवज्ञा आंदोलन के साथ कई स्‍थानों पर सशस्‍त्र विद्रोह भी हुए पर गांधी इरविन पैक्‍ट और गोलमेज सम्‍मेलन की असफलता ने इस आंदोलन की रीढ़ तोड़ दी। इन समझौतों के फलस्‍वरूप गांधीजी को सरदार भगत सिंह और उनके मित्रों की फांसी का तोहफा मिला। गांधी जी भगत सिंह को नहीं बचा सके और सन् १९३३ में वे कांग्रेस की सक्रिय राजनीति से अलग हो गए। सत्‍याग्रह आंदोलन वापिस ले लिया गया जिससे सुभाषचंद्र बोस अत्‍यधिक क्षुब्‍ध हुए उन्‍होंने नए सिद्धांतों के आधार पर कांग्रेस के पुनर्गठन की बात कही और सन् १९३४ में समाजवादी दल का जन्‍म हुआ जिससे सन् १९३५ के बाद भारतीय राष्‍ट्रवाद समाजवाद के प्रगतिशील तत्‍वों से अनुप्राणित होने लगा। सन्  १९३४ में भारतीय कम्‍युनिस्‍ट पार्टी (जो भारत सरकार द्वारा अवैध घोषित कर दिए जाने पर सन् १९४२ तक गुप्‍त रूप से कार्य करती रही) और कांग्रेस –समाजवादी दल की स्‍थापना भारतीय राजनीति में  एक नया मोड़ था।

इसी तरह अंतर्राष्‍ट्रीय स्‍तर पर एशिया, अफ्रीका तथा लातिन अमेरिका के देशों में साम्राज्‍यवाद का विरोध जोर पकड़ रहा था। यूरोप में न केवल फासिज्‍म का उदय हुआ अपितु द्वितीय विश्‍वयुद्ध के बीजांकुर भी फूटने लगे थे। उत्तर छायावादी कवियों ने पूर्ण गंभीरता आशा-निराशा से भरी इन्‍हीं परिस्थितियों को वाणी दी और ‘’हिंदी कविता को देश और विश्‍व के व्‍यापक यथार्थ से जोड़कर ऐसे जनता तक पहुंचा दिया क्‍योंकि इसी में उसकी सार्थकता थी।(नंदकिशोर नवल – आधुनिक हिंदी कविता का इतिहास – पृष्‍ठ २५६) 

इस प्रकार राजनीतिक उतार-चढ़ावों के इस माहौल में राष्ट्रीयता की भावना प्रबल होती गयी और इस व्यापक राष्ट्रीय जागृति की हलचल में हमारा साहित्य पनपा और फूला-फला जिसकी परिणती राष्ट्रीय सांस्कृतिक धारा के रूप में हुई। वहीं दूसरी और गाँधीवादी अतिशय नैतिकता से नए आधुनिक मनुष्य के तालमेल न कर पाने से समाजवादी विचारधारा को पनपने का अवसर मिला जिससे उस समय व्यक्तिवाद को बढ़ावा मिला जिससे काव्य में व्यक्तिवादी चेतना का उदय हुआ और उनका काव्य व्यक्तिगत-संघर्ष और उसकी सफलता-विफलता की कहानी रहा। वैयक्तिक कविता इसका सशक्त प्रमाण है। 

छायावादी कविता के पूर्ण उन्मेष के काल में देश की राष्ट्रीय चेतना में एक नया मानवतावादी संस्कार विकसित हुआ। देश की स्वतंत्रता का लक्ष्य केवल अंग्रेज़ो की राजनीतिक पराधीनता से मुक्ति पाना भर है या हर प्रकार के आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक शोषण, भेदभाव और अन्यायपूर्ण वर्ग संबंधों का अंत करके समानता, न्याय और जनतंत्र के आधार पर एक नए शोषण-मुक्त समाज और नयी मानवतावादी संस्कृति की स्थापना करना हैं – यह प्रश्न सभी लोकचेता विचारकों को मथित करने लगा था। (शिनदानसिंह चौहान- हिंदी साहित्य के अस्सी वर्ष – पृष्ठ-१००) कवि भी इन प्रश्नों से अछूता नहीं रहा। एक ओर उसका मन गांधीजी के आदर्शों की ओर आकृष्ट हो रहा था तो वहीं दूसरी ओर मार्क्स का यथार्थपरक सामाजिक चिंतन उसे अपनी ओर खींच रहा था। डॉ. नगेंद्र कहते है कि इस युग की कविता आदर्शवादी और भौतिकवादी विचारधाराओं के बीच का सेतु है। इसमें आदर्श विचारधारा का प्रखर व्यक्तिवाद और भौतिकवादी वामपक्षीय विचाराधारा का स्थूल और मूर्त अर्थात्‌ भौतिक जगत के प्रति आग्रह तथा परंपरा और अध्यात्म के सूक्ष्म आदर्शों के प्रति आस्था है। (डॉ. नगेन्द्र-आधुनिक हिंदी कविता की मुख्य प्रवृत्तियाँ – पृष्ठ – ६१)

१९३० के बाद से भारतीय सामाजिक जीवन में नये तरह के परिवर्तन आने शुरू हो गए थे। समाज में मध्यवर्ग का महत्व बढ़ गया, वही तत्कालीन समाज का प्रवक्ता बना – शिक्षा, साहित्य तथा संस्कृति और राजनीति का नेतृत्व भी उसके हाथ में आ गया। इस वर्ग की चेतना अतिशय व्यक्तिवादी रही है। वास्तव में यह दर्शन, राजनीति, अर्थव्यवस्था तथा समाज-व्यव्स्था में व्यक्तिवाद का युग था जिसके द्वारा स्वदेशी-विदेशी प्रभावों के कारण मानव-चेतना मध्ययुगीन सामंतवादी रूढि़यों से प्राय: मुक्त हो चुकी थी। अपनी सत्ता के प्रति जागरुक हो गयी थी । दर्शन के क्षेत्र में बहुदेववाद के स्थान पर एकेश्वरवाद अथवा अद्‌वैतवाद की पुन: प्रतिष्ठा, राजनीति में व्यक्ति का बढ़ता हुआ प्रभाव, अर्थ-व्यवस्था में पैतृक सम्पत्ति के स्थान पर व्यक्ति के अपने पुरुषार्थ द्वारा अर्जित पूँजी का विकास और समाज के क्षेत्र में व्यक्ति के प्रयत्नों की वर्तमान सफलता आदि ऐसे सार्वभौम कारण उपस्थित हो गए थे जिनसे व्यक्तिवाद को अत्यंत प्रोत्साहन मिला। वहीं व्यक्तिवाद के इस प्रोत्साहन ने काव्य में वैयक्तिक कविता के आविर्भाव में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। समाजवादी विचारधारा के उदय के साथ ‘वर्गहीन समाजकी परिकल्पना को भी बल मिला।

इस प्रकार तत्कालीन परिवेश ने नए काव्य के उत्थान की प्रक्रिया को नयी स्फूर्ति और गति प्रदान की। इस साहित्य में युगीन वास्तविकता, सामाजिक व राजनीतिक आंदोलन से प्रेरित होकर काव्य में संघर्ष के सीधे चित्रण के रूप में व्यक्त हुई। राष्ट्रीय संघर्ष ने काव्य में उग्र राष्ट्रीय स्वरों को वाणी दी। वैयक्तिक स्तर पर सामाजिक रूढ़ियों के सीधे नकार के रूप में यह संघर्ष अभिव्यक्त हुआ। इस कविता में संघर्ष और तज्जन्य असफल्ता से उत्पन्न निराशा, हताशा और अवसाद के भी चित्र मिलते हैं।

यथार्थ के दबाव के कारण इस दौर की कविता में धीरे-धीरे आध्यात्मिक अनुबंध खत्म होने लगे और अनुभूत सत्यों की सहज-सरल अभिव्यक्ति को बल मिलने लगा। अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त करने के लिए कवि आध्यात्मिक के आवरण को अस्वीकार करने लगे। फिर चाहे अभिव्यक्ति राष्ट्रीय चेतना की हो या व्यक्तिगत भावों की, सीधी-सरल-सहज अभिव्यक्ति शैली इस युग की कविता की प्रमुख विशेषता थी।

कल्पना के वायवी जगत को छोड़कर, यथार्थ के धरातल पर ‘उत्तर-छायावादी’ कवि इसी जगत को जीवन के लिए उपादेय बनाने का जीवंत सन्देश देने लगे। जीवन और जगत क्षणभंगुरता के प्रति सतत्‌ जागरूक रहते हुए इस वर्ग के कवियों का संदेश निवृत्तिमूलक न होकर प्रवृत्तिमूलक है। प्राप्य लघु क्षणों का स्वस्थ उपभोग और सदुपयोग इनकी दृष्टि में अनिवार्य था। नैतिकता की दृष्टि से यह संक्रांति बेला थी जहाँ कवि के मन में आदर्श और यथार्थ का द्वंद्व चल रहा था। सामाजिक नीति-नियमों की जकड़बंदी को व्यक्ति के विकास में बाधक मानने वाले इस कवियों ने अंध रूढ़ियों के विरुद्ध विद्रोह का स्वर प्रबल करते हुए कविता को आत्माभिव्यक्ति का साधन बनाया। इनकी विद्रोह भावना ललकार से विकास की ओर उन्मुख है।

इन कवियों ने धर्म के नाम पर समाज में फैले हुए मिथ्याचारों, आडंबरों, रूढ़ियों, मंदिर संस्थापना और मूर्ति पूजन में लीन विकृत बुद्धि का अनैतिक व्यापार देखकर उसके विरुद्ध सशक्त आवाज़ उठाई। धार्मिक रूढ़ियों का विरोध करने वाले इस युग के कवियों के लिए मानवता ही सर्वोपरि धर्म था और वहीं दूसरी ओर परतंत्र भारत को स्वतंत्रता दिलाने के प्रतिबद्ध कवियों के लिए राष्ट्रीयता ही एकमात्र धर्म था, जिसके लिए उन्होंने राष्ट्रीय-चेतना से ओत-प्रोत रचनाएँ रची। तत्कालीन समाज में समाजवाद के बढ़ते प्रभाव की वजह से मानव मात्र का महत्व बढ़ा और जात-पात, अमीर-गरीब आदि वर्ग-भेदों को त्याग तद्‌युगीन कवि आदर्श वर्गहीन समाज के सपने संजोने लगे।

सन्‌ ९९३० के आसपास राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक परिस्थितियों की तरह आर्थिक परिस्थिति भी चिंतनीय थी क्योंकि समाज में मध्यवर्ग के उदय के साथ मध्यवर्ग की समस्याएँ भी उभरी। शिक्षा प्राप्त मध्यवर्ग के युवक अपने पैतृक व्यवसाय, कृषि, व्यापार आदि के स्थान पर उच्च पदों, सरकारी नौकरियों के लिए अधिक संघर्षशील थे, परंतु विदेशी सरकार को व्यवस्था भर बनाये रखने से मतलब था। पूंजीवाद के बढ़ते प्रभाव से समाज में उच्च वर्ग, मध्यम वर्ग के बीच बहुत अंतर आ गया और इस भयंकर वैषम्य से जिसको जूझना पड़ रहा था वह भारतीय समाज का शिक्षित-युवक था, जिसके पास न शक्ति थी, न साधन थे। आर्थिक क्षेत्र में बेकारी और उचित वृत्ति के अभाव से इस वर्ग का आत्मसम्मान आहत हुआ जिससे उनकी विद्रोही चेतना भी कुंठित हो गयी। इसमें गति न, होकर हुंकार भर थी, और इसका वेग अंतर्मुखी हो गया जिससे इस युग की कविता में बाह्‌य जीवन का संघर्ष अभिव्यक्त न हो सका उसमें अंतर्मन की टकराहट अधिक थी जिसके मूल में आर्थिक-वैषम्य की भावना ही क्रियाशील थी। यह तो आर्थिक क्षेत्र का वैयक्तिक संदर्भ था। सामाजिक संदर्भ में अर्थव्यवस्था में शोषण-मुक्त समाज की स्थापना का संघर्ष अधिक प्रबल था। स्वदेशी की भावना के फलस्वरूप भारतीय उद्योग धंधो को बढ़ाने और अपनाने का प्रस्ताव जन-समक्ष रखा गया।


क्या आप जानते हैं ?
इस समय अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद की राजनीतिक-आर्थिक गुलामी से मुक्ति पाने के लक्ष्य के साथ-साथ भारतीय सामंतवाद के अवशिष्ट चिन्‍हों से किसानों को और भारतीय पूँजीवाद से मजदूरों को मुक्त करके एक शोषणरहित समाजवादी जनतंत्र की स्थापना का लक्ष्य भी भारतीय जनता के सामने राष्ट्रीय नेताओं द्वारा रखा गया। यह बढ़ती हुई समाजवादी चेतना का ही असर था जिसने तत्कालीन साहित्य को भी प्रभावित किया।


सन्‌ १९३४ में आचार्य नरेंद्र देव के सभापतित्व में कांग्रेस में समाजवादी दल की स्थापना और सन्‌ १९३६ में प्रगतिशील लेखक संघकी स्थापना जैसे राजनीतिक और साहित्यिक संगठनों से कवियों को भी पर्याप्त शक्ति  मिली। अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंचकर छायावाद ने अब उत्तर-छायावादके लिए भूमि तैयार करनी आरम्भ कर दी। पंत, निराला जैसे कवियों ने भी यथार्थवादी रचनाएँ लिखी। यह उत्तर-छायावाद’ का उद्‌भव काल था कवि सम्मेलनों में लोग निराला से अधिक बच्चन को सुनना चाहते थे। दिनकर अपनीहुंकारके साथ मंच के केंद्र में उपस्थित थे। हिंदी में एक ओर मस्ती का आलम धुल उड़ाता जुआ चला जा रहा था और दूसरी ओर जवानियाँ लहू में तैर-तैर कर नहा रही थी। कवियों के सारे अरमान शीशे में उतरे जा रहे थे।——- साहित्य में डॉ. देवराज ही छायावाद का पतनकी घोषणा नहीं करा रहे थी, पंत जी को भी लग रहा था की छायावाद युग’ बीत गया। कुल मिलकर वह एक अफरा-तफरी का दौर था, जिसमें उत्तर-छयावादीकाव्य विकसित हुआ। (विजयमोहन सिंह – बीसवीं शताब्दी का हिंदी साहित्य-पृष्ठ-४३)  जिसकी प्रमुख काव्य धाराओं के अंतर्गत राष्ट्रीय सांस्कृतिक कविता और वैयक्तिक कविता को सम्मिलित किया जाता है

राष्ट्रीय सांस्कृतिक कविता : प्रवृत्ति-विश्लेषण

भारतीय जन-जीवन में विश्व-बंधुत्व और राष्ट्रीयता की निर्मल गंगा प्राचीन सांस्कृतिक विरासत के रूप में प्रवाहित है, जिसे साहित्य में सशक्त अभिव्यक्ति मिली है। हिंदी साहित्य के शताधिक कवि-कण्ठो ने राष्ट्रीयता की भावना को जो ओजस्वी वाणी दी है उसमें विश्व-कल्याण की मंगलाकांक्षा भी निहित है। विश्व बंधुत्व की बात हम तभी कर सकते हैं जब हम अपने राष्ट्र की स्वतंत्रता और अखंडता के प्रति अपने-आपको पर्याप्त सबल एवं सशक्त प्रमाणित करने की शक्ति, क्षमता एवं सामर्थ्य से अनुप्राणित हो। हिंदी के कवियों ने अपने राष्ट्रीय  कर्तव्य को सदैव प्रमुखता दी है, चाहे वह पराधीनता के प्रति व्यापक असंतोष, विद्रोह एवं प्रतिकार का युग रहा हो, चाहे स्वाधीनता भारत की स्वतंत्रता और अखंडता का प्रश्न, सभी अवसरों पर देशभक्तिपरक रचनाओं से हिंदी साहित्यकार अनुगूँजित रहा है। राष्ट्रीय शब्द अपने आधुनिक है जिसमें जाति, संप्रदाय, धर्म, सीमित भू-भाग आदि की संकीर्णता के स्थान पर क्रमश: एक समग्र देश और उसके भीतर निवास करने वाली समस्त जातियों, भिन्न-भिन्न भू-खण्डों, सम्प्रदायों और रीति-रिवाजों के लोगों का संश्लिष्ट, सामूहिक रूप उभरता गया हैं। कहना न होगा कि अंग्रेज़ों के आने के समय तक अपनी सांस्कृतिक एकता के बावजूद भारत व्यव्हारिक रूप से भिन्न-भिन्न राज्यों में बंटा हुआ था। वास्तव में पूरे भारतवर्ष की एकता के अर्थ में राष्ट्रीयता का विकास आधुनिक काल में हुआ। (स. डॉ. नगेंद्र- हिंदी साहित्य इतिहास (छायावादोत्तर काल) पृष्ठ ६९८) अंग्रेज़ों के अत्याचारों से त्रस्त भारतीय जनता एकता के सूत्र में बंधती गयी और उसने अंग्रेज़ी शासन के विरुद्ध मुक्ति का अभियान आरम्भ किया। इसमें कोई संदेह नहीं की सन्‌ १८५७ का विद्रोह असफल होकर भी जनमानस में राष्ट्रीयता के बीज बो गया था, जिससे भारतीय स्वाधीनता के स्वप्न देखने लगे और स्वाधीनता संग्राम के रूप में इस स्वप्न को साकार करने के प्रयत्न भी होने लगे। राजनीतिक दृष्टि से देश में पूर्ण जागृति आ चुकी थी। कांग्रेस की स्थापना से राष्ट्रीय गतिविधियाँ बढ़ने लगी थी। समग्र राष्ट्र प्रांतीयता, साम्प्रदायिकता आदि की संकुचित भावनाओं का परित्याग कर पूर्ण स्वराज के लिए संगठित होने लगा। चिर दासता के बंधन तोड़ने के लिए व्यग्र और सन्नद्ध-देश को देखकर कवि के लिए मौन या मस्त रहना असंभव था अतएव कवियों ने प्रबुद्ध समष्टि के साथ मिल कर मात्र देशभक्ति के गान ही नहीं गाए अपितु स्वयं भी स्वतंत्रता – संग्राम में सक्रिय भाग लेने लगे। 

राष्ट्रीय भावना के पूर्ण विकास, स्वतंत्रता के प्रति आग्रह और कवियों के मनसा, वाचा, कर्मणा पूर्ण सहयोग को दृष्टि में रखकर ही इस काव्यधारा को “राष्ट्रीय-सांस्कृतिक” धारा भारतेंदु काल से प्रारंभ होकर द्विवेदी- काल, छायावाद काल को पार करती हुई इस काल की कविताओं में समकालीन प्रश्नों, स्वरों से संयुक्त होकर और भी उदार और वैविध्यपूर्ण हो गई। (डॉ. नगेंद्र – आधुनिक हिंदी कविता की मुख्य प्रवृत्तियाँ – पृष्ठ ३४१) इस प्रकार हिंदुस्तान में राष्ट्रीयता का स्वरूप इतना व्यापक हो गया कि विश्व बंधुत्वता से सम्बद्ध हो गया।

रामधारी सिंह ‘दिनकर’, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’, माखनलाल चतुर्वेदी, सुभद्रा कुमारी चौहान, मैथिलीशरण गुप्त, सियारामशरण गुप्त इस काव्यधारा के प्रमुख कवि है जिन्होंने स्वाधीनता-संग्राम में सक्रिय भूमिका निभाई। ये कवि स्वयं कांग्रेस के कर्मठ कार्यकर्ता भी थे और स्वतंत्रता संग्राम के शूर-सेनानी भी। इनकी दृष्टि में :- राष्ट्र अपने गले की तोंके उतार फेंकने के लिए बड़े-बड़े आंदोलन चला रहे हैं, ऐसे समय में कवि का अपनी वैयक्तिक अनुभूति के माया बंध में बंधा रह जाना जीवन के प्रति साहित्य की दायित्व हीनता का प्रमाण है। (दिनकर- मिट्टी की ओर – पृष्ठ १५३

राष्ट्रीय सांस्कृतिक कविता की प्रवृत्तियाँ

राष्ट्रीय सांस्कृतिक कविता की मूल भावना देशभक्ति है और देशभक्ति राग और उत्साह का मिश्रण है। उत्साह इसके राष्ट्रीय स्वरूप का आधार है और राग उसके मानवीय-सांस्कृतिक रूप का। पराधीनता के प्रति आक्रोश, उत्साह का अहिंसक रूप, अतीत का गौरव गान, बलिदान की आकांक्षा, सामाजिक कुरीतियों एवं विषमताओं का विरोध देशभक्ति का रागात्मक स्वरूप इस काव्य की प्रमुख विशेषताएं हैं।

पराधीनता के प्रति आक्रोश

राष्ट्रीयता की भावना से प्रेरित कवियों में पराधीनता के प्रति आक्रोश की भावना घर कर गयी थी क्योंकि मातृभूमि उनके लिए जननी स्वरूप गरिमामयी थी और अपनी मातृभूमि को पराधीनता की बेड़ियों से मुक्त करना ही उनका परम कर्तव्य था जिसका निर्वाह वे अपनी रचनाओं और स्वाधीनता – संग्राम में सक्रिय भाग लेकर कर रहे थे। पराधीनता के प्रति आक्रोश से भरा कवि महानाश को भी पुकार उठा-

          “कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ जिससे उथल-पुथल मच जाये।
          एक हिलोर इधर से आए, एक हिलोर उधर को जाये।
          नाश! नाश! हाँ महानाश! की प्रलयंकारी आँख खुल जाये!
          (बालकृष्ण शर्मा नवीन- विप्लव गायन पृष्ठ ७४) 

इसी प्रकार सोहनलाल द्विवेदी ने समस्त राष्ट्र को झकझोरते हुए कहा कि :- 

          “कब तक क्रुर प्रहार सहोगे ?
          कब तक अत्याचार सहोगे ?
          कब तक हाहाकार सहोगे ?
          उगे राष्ट्रके है अभिमानी
          सावधान मेरे सैनानी।
(सोहनलाल द्विवेदी – चेतना – पृष्ठ २२)

उत्साह का अहिंसक और क्रांतिकारी रूप

इस काव्यधारा के कवियों में देशभक्ति की भावना के कारण उत्साह का सागर हिलोरें लेता दिखाई देता है, इनका उत्साह सभी की प्रेरणा का स्रोत था। इनके उत्साह में हिंसात्मक गतिविधियों के स्थान पर गांधीजी के प्रभाव के कारण उत्साह का अहिंसक रूप लक्षित होता है। इसीलिए वे कहते है युद्धनीति है परम भयंकर; शांति साधना है श्रेयस्कर वहीं सुभद्रा कुमारी चौहान भी गांधीजी की अहिंसा से विशेष प्रभावित दिखाई देती हैं-

          “हमारी प्रतिभा साध्वी रहे, देश के चरणों पर ही चढ़े
          अहिंसा के भावों में मस्त आज यह विश्व जीतना पड़े
          हम हिंसा का भाव त्यागकर विजयी वीर अशोक बनें।
          (सुभद्रा कुमारी चौहान – मुकुल – पृष्ठ – १४)

उत्साह का अहिंसक रूप, निशस्त्र अहिंसात्मक सत्याग्रहियों के दमन, गिरफ्तारी, लाठी-प्रहार, गोली काण्ड, गांधी जी के उच्च नैतिक आदर्शों से मोहभंग के कारण हिंसात्मक रूप में बदलता भी नज़र आया। इन कवियों में सात्विक गर्व और ओज की जो आस्तिकता थी उसकी भव्य दीप्ति में क्रांति की चिंगारी भड़क उठी थी। दिनकर ओजस्वी और क्रांतिकारी वाणी में कह उठे:-

          “छोड़ो मत अपनी आन, सीस काट जाये,
          मत झुको अनय पर, भले व्योम फट जाये।
          ——-
         नत हुए बिना जो अशनि घात सहती है,
         स्वाधीन जगत में वही जाति रहती है।
         दानवी रक्त से सभी पाप धुलते है, ऊँची मनुष्यता के पथ भी खुलते है
                                                                                       (दिनकर)

बलिदान की आकांक्षा

देशभक्ति की निर्मल भावना से युक्त इस युग की कविताओं में त्याग, उत्सर्ग और वीरता के असंख्य प्रेरणादायक गीत है जो तत्कालीन परिवेश में भारतीयों को अंग्रेजों से लोहा लेने के लिए प्रेरित करते हुए देश की वेदी पर न्यौछावर होने की उच्च भावना पैदा कर रहे थे। स्वयं कवि भी आत्मोत्सर्ग के लिए तैयार थे क्योंकि ये कवि सिंहासन पर आसीन रहने वाले उपदेशक नहीं थे, इसीलिए इनकी अधिकांश रचनाएँ वीर सत्याग्रहियों के युद्ध के गान है। (डॉ. केसरी नारायण शुक्ल – आधुनिक काव्यधारा – पृष्ठ – १७१) राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम में देश का कण-कण आत्म आहुति हेतु आतुर था और इससे कवि-जन भी अछूते नहीं रहे पुष्प की अभिलाषा के माध्यम से माखनलाल चतुर्वेदी कहते हैं :

         चाह नहीं मैं सुरबाला के
         गहनों में गूँथा जाऊँ
         चाह नहीं, देवों के सिर पर
        चढ़ूँ, भाग्य पर इठलाऊँ।
        ——–
        मुझे तोड़ लेना वनमाली 
        उस पथ पर देना तुम फ़ेक,
        मातृभूमि पर शीश चढ़ाने
        जिस पथ जावें वीर अनेक।”
        (माखनलाल चतुर्वेदी – पुष्‍प की अभिलाषा – पृष्‍ठ  ) 

देशभक्ति का रागात्‍मक स्‍वरूप, अतीत का गौरव गान

देश के प्रति प्रेम, भक्ति-भावना, स्‍वर्णिम अतीत का गौरव गान, प्रकृति प्रेम, अपने राष्‍ट्र के निवासियों के परस्‍पर दु:ख-सुख की समानानुभूति, सुखों के समान बंटवारे की हिमायत करना, देश के सभी धर्मों, जातियों एवं वर्गों की महानता स्‍वीकार कर सबका सम्‍मान करना आदि की प्रवृत्ति राष्‍ट्रीय सांस्‍कृतिक कविता की प्रमुख विशेषताएं है। डा0 नगेन्‍द्र की मान्‍यता है:- ”जब मनुष्‍य के राग-वृत्‍त का विस्‍तार होता है, तो वह अपने व्‍यक्तित्‍व से परिवार, परिवार से ग्राम, नगर और प्रदेश, देश और इसके आगे विश्‍व तक व्‍यापक हो जाता है। यह वास्‍तव में ‘स्‍व’ का विस्‍तार ही है निषेध नहीं है। ”देश भक्ति में ‘स्‍व’ का वृत्‍त समग्र देश और उसके निवासियों तक विस्‍तृत हो जाता है। इस विस्‍तार प्रक्रिया में राग के उत्‍साह का मिश्रण भी हो जाता है क्‍योंकि देशवासियों के प्रति राग का अभिप्राय है: उनके कष्‍टों का निवारण, उनकी सेवा-सहायता, उनके विकास का प्रयत्‍न और ये सभी उत्‍साहमूलक क्रियायें है। इस प्रकार देश भक्ति में राग उत्‍साह के साथ मिल कर उदात्‍त रूप धारण कर लेता है।” (डा0 नगेन्‍द्र-आधुनिक हिंदी कविता की मख्‍य प्रवृत्तियां – पृष्‍ठ-१९)

देशभक्ति का रागात्‍मक स्‍वरूप देश के प्रत्‍येक कण से प्रेम करना सीखता है। फिर चाहे प्रकृति हो, उस देश के निवासी हो, संस्‍कृति हो, या मूल्‍य हो। अतीत के गौरवमयी इतिहास को प्रेरणा स्‍त्रोत के रूप में अपनाते हुए कवि वर्तमान की दुर्दशा के प्रति लोगों में जागरूकता पैदा करना चाहता है, इससे इस काव्‍य में एक ओर भारत का गौरवमयी, गरिमामयी अतीत है तो वहीं दूसरी ओर अंग्रेजी शासन से त्रस्‍त भारत भी है। जिसके प्रति कवियों में क्षोभ की भावना दिखलाई पड़ती है:

        ”जगत ने जिसके पद थे छुए
        सकल देश जिसके ऋणी हुए।
        ललित लाभ कला सब थे जहां
        वह हरे! अब भारत है कहां
        हम कौन थे क्‍या हो गए और क्‍या होंगे अभी
        आओ विचारें आज मिलकर ये समस्‍याएं सभी”
        (मैथिलीशरण गुप्‍त-भारत-भारती- पृष्‍ठ – १०)

वही देश प्रेम के महत्‍व को प्रतिपादित करते हुए रामनरेश त्रिपाठी कहते हैं:- 

        ”देश-प्रेम वह पुण्‍य क्षेत्र है,
        अमल असीम त्‍याग से विलसित
        आत्‍मा के विकास से जिसमें,
        मनुष्‍यता होती है विकसित।”
        (रामनरेश त्रिपाठी- ‘स्‍वप्‍न’ – स्‍वदेश प्रेम – पृष्‍ठ – २३)

इस प्रकार मातृभूमि के लिए इनका अतुलनीय अनुराग, श्रद्धा एवं उत्‍सर्ग की भावना सभी देशवासियों के लिए प्रेरणादायिनी साबित हुई।

विद्रोह भावना, क्रांति का आह्वान, जागरण का भाव

सन् १९३० के आसपास तीव्र होते स्‍वाधीनता आंदोलन के समय भारतीय जनमानस को यह आभास हो गया था कि स्‍वतंत्रता हाथ पसारकर भीख मांगने से कदापि प्राप्‍त नहीं हो सकती। शासक वर्ग की दमन-नीति के विरुद्ध लोगों में आक्रोश, प्रतिशोध और विद्रोह की भावना भभक उठी थी। अत: भारतीयों को स्‍वतंत्रता का शंखनाद शासक वर्ग की गोली-लाठी के भयंकरतम प्रहारों के सम्‍मुख अविचल और विकराल बनता जा रहा था, अपने ‘स्‍व’ के प्रति भारतीय जागरूक हो गए थे, राष्‍ट्रीय – कर्तव्‍यों के प्रति सजग थे। देश की दुर्दशा और निराशाजनक राजनीतिक अवस्‍था में भारतीय जन-मानस में असंतोष और क्रांति का महासागर आलोडित कर दिया था जिसकी सशक्‍त अभिव्‍यक्ति राष्‍ट्रीय सांस्‍कृतिक कविता में हुई। इस युग के कवियों में विप्‍लववादी स्‍वर के साथ गांधीवादी आस्‍था भी मिलती है। परन्‍तु उन्‍हें यह भी समझ आ गया था कि ”कौन केवल आत्‍मबल से जूझकर जीत सकता देह का संग्राम” (दिनकर-हुंकार-पृष्‍ठ ७४) अत: ये कवि क्रांति का आह्वान कर भारतीयों को अंग्रेजों से लोहा लेने के लिए प्रेरित कर रहे थे।

        ”जागो हे पांचाल निवासी
        जागो हे गुर्जर, मद्रासी
        जागो हिन्‍दू, मुग़ल मरहठे।
        जागो मेरे भारतवासी
        जननी की जंजीरें बजती
        जाग रहे कडियों के छाले
        सुना रहा हूं तुम्‍हें भैरवी
        जागो मेरे सोने वाले।”
        (सोहनलाल द्विवेदी-भैरवी-पृष्‍ठ ११३)

इतना ही नहीं इन कवियों ने अन्‍याय और अत्‍याचार करने वालों के विरुद्ध विद्रोह की आवाज बुलंद करते हुए क्रांति की प्रेरणा दी है क्‍योंकि अत्‍याचारी और निरंकुश शासकों से शांतिपूर्वक प्रार्थनाओं के माध्‍यम से न्‍याय की उम्‍मीद तनिक भी नहीं की जा सकती थी। अत: दिनकर कहते हैं ”पाशविकता खडग जब लेती उठा आत्‍मबल का एक वश चलता नहीं।”न्‍याय की उम्‍मीद तनिक भी नहीं की जा सकती थी। अत: दिनकर कहते हैं ‘‘पाश्‍विकता खडग जब लेती उठा आत्‍मबल का एक वश चलता नहीं।’’ वहीं दूसरी ओर वे कहते हैं:-

        ‘‘ न्‍यायोचित अधिकार मांगने
        से न मिले तो लड़के,
        तेजस्‍वी छीनते समर को
        जीत या खुद मरके।
        ……………….
        किसने कहा पाप है समुचित
        स्‍वत्‍व प्राप्ति हित लड़ना?
        उठा न्‍याय का खडग समर में,
        अभय मारना मरना?  (दिनकर-कुरूक्षेत्र-पृष्‍ठ ६४-६५)

सामाजिक – धार्मिक रूढि़यों का विरोध और साम्‍प्रदायिकता के विरूद्ध संघर्ष

राष्‍ट्रीय जागरण के इस दौर में सामाजिक एवं धार्मिक रूढि़यां समाज को पंगु बनाती जा रही थी अत: उनका विरोध अत्‍यंत आवश्‍यक था। बात चाहे जात-पात, छुआछूत, आडम्‍बरों, मिथ्‍याचारों, नारी-दुर्दशा की हो राष्‍ट्रीय – सांस्‍कृतिक धारा के कवियों ने रूढि़यों में जकड़े भारत पर व्‍यंग्‍य कस्‍ते हुए उनके विरूद्ध अपनी आवाज़ बुलंद की है। ‘नवीन’ जी कहते हैं:

        ”आओ क्रांति बलायें ले लूं
        ……………
        वास करो मेरे घर – आंगन,
        विचरों मेरी गली-गली।
        सइी-गली परिपाटी मेरी,
        इसे भस्‍म तु कर जाओ
        विकट राजपथ में मंडराओ,
        जन-पद में डोलो, आओ।” 
        (बालकृष्‍ण शर्मा ‘नवीन’ – ‘हम विषपायी जनम के – पृष्‍ठ ४४१)

साम्‍प्रदायिकता की भावना को भड़काने में अंग्रेजों का हाथ है, ‘फूट डालो शासन करो’ की नीति के तहत उन्‍होंने भारतीय एकता, अखंडता को कमजोर करने का भरसक प्रयास किया। स्‍वतंत्रता आंदोलन की सफलता के लिए हिन्‍दू, मुस्लिम, सिख, ईसाइयों की एकता एक अनिवार्य आवश्‍यकता थी और हमारे राष्‍ट्रीय कवि इस सत्‍य से परिचित थे अत: उन्‍होंने साम्‍प्रदायिकता के विष के विरूद्ध भारतीयों को सजग करने का प्रयास किया। साम्‍प्रदायिकता की ‘ज्‍वाला’ सबको जला देती है, यही बात समझाते हुए दिनकर कहते हैं:- 

        ‘’ओ बदनसीब! इस ज्‍वाला में
        आदर्श तुम्‍हारा जलता है
        समझाए कैसे तुम्‍हें कि
        भारतवर्ष तुम्‍हारा जलता है
        जलते है हिन्‍दू-मुसलमान
        भारत की आंखें जलती हैं,
        आने वाली आजादी की
        लो! दोनों पांखे जलती है!’’
        (दिनकर – ‘सामधेनी’ – पृष्‍ठ २१) 

समाजवाद का प्रभाव और स्‍वतंत्रता की प्रबल आकांक्षा

इस समय वामपंथी दलों के उदय, समाजवादी सिद्धांतों के प्रचार तथा विदेशी शासन के झूठे वायदों और अधिकाधिक कठोर, विषम एवं जटिल होती परिस्थितियों के कारण साहित्‍य का स्‍वर अधिक उग्र, यथार्थवादी, और लोकोन्‍मुख होता गया। समाज में श्रमिकों, किसानों की दुर्दशा से क्षुब्‍ध कवि, साम्राज्‍यवाद और सामंतवाद के विरुद्ध विद्रोह करते दिखाई दिए। समाजवादी विचारधारा ने वर्गहीन शोषण मुक्‍त समाज का आदर्श रखते हुए भारतीय राष्‍ट्रीयता को जन जीवन से जोड़ा। राष्‍ट्र की मुक्ति की आकांक्षा प्रबल होती गई। इन कवियों ने शोषितों की दयनीय स्थिति का चित्रण कर उन्‍हें शोषित और प्रताड़ित जीवन से ऊपर उठने की प्रेरणा दी और स्‍वाधीनता – संग्राम में भाग लेने के लिए प्रेरित किया। देश-वासियों की दयनीय स्थिति को देखकर कवि का ह्रदय पसीज जाता है और वह कामना करता है कि शोषण का यह चक्र जल्‍द से जल्‍द समाप्‍त हो जाए।

        ‘’श्‍वानों को मिलता दूध-वस्‍त्र, भूखे बालक अकुलाते हैं,
        मां की हड्डी से चिपक, ठिठुर जाड़ों की रात बिताते हैं!
        …………..
        पापी महलों का अहंकार देता मुझको तब आमंत्रण।’’
        (दिनकर – ‘हुंकार’ – पृष्‍ठ -७२)

विदेशी शासन के विरूद्ध संघर्ष छेड़ने का संदेश देते हुए किसानों को सम्‍बोधित करते हुए सोहनलाल द्विवेदी कहते हैं:- 

        ‘’सोये किसान। उठ जाग-जाग।
        निष्‍ठुर शासन में लगा आग,
       गा महाक्रांति का अभय राग।‘’
       (सोहनलाल द्विवेदी – ‘भैरवी’ पृष्‍ठ -१९)

नए युग, नए समाज, मानवता, विश्‍व-बंधुत्‍वता का स्‍वर प्रबल करते हुए राष्‍ट्रवादी कवि शोषण मुक्‍त समाज के लिए क्रांति का समर्थन करने लगे। स्‍वर-स्‍तर में सागर जैसी गर्जना और कर-कर में नूतन सर्जन से ही नव-सृजन और मानवता का पथ प्रशस्‍त होगा।

        ‘’करो सृजन अभिनव जगती का
        नव-नव सामाजिक संहति का
        मानव हो! …………ऐसा हो
        शुद्ध प्रयोग तुम्‍हारी मति का’’
        (बालकृष्‍ण शर्मा ‘नवीन’, हम विषपायी जनम के – पृष्‍ठ-४७०)

इस प्रकार अंतत: हम कह सकते हैं कि, स्‍वतंत्रता आंदोलन के उत्‍तरोत्‍तर विकास के साथ हिंदी कविता और कवियों के राष्‍ट्रीय रिश्‍ते मजबूत हुए। राजनीतिक घटनाक्रम में कवियों के तेवर बदलते रहे और कविता की धार भी तेज होती गई। आंदोलन के प्रारम्‍भ से लेकर स्‍वतंत्रता प्राप्ति तक हिंदी काव्‍य संघर्षों से जूझता रहा। स्‍वाधीनता के पश्‍चात राष्‍ट्रीय कविता के इतिहास का एक नया युग प्रारम्‍भ हुआ। नये निर्माण के स्‍वर और भविष्‍य के प्रति मंगलमय कल्‍पना, उनके काव्‍य का विषय बन गया। फिर भी स्‍वतंत्रता यज्ञ में उनके इस अवदान और बलिदान को विस्‍मृत नहीं किया जा सकता। भारत का ऐतिहासिक क्षितिज उनकी कीर्ति किरण से सदा आलोकित रहेगा और उनकी कवितायें राष्‍ट्रीय धरोहर बनकर नयी पीढ़ी को अपने देशभक्ति से पूर्ण ओजस्‍वी गीत सुनाती रहेंगी।

उत्तर छायावाद के प्रतिनिधि कवि और उनकी कृतियाँ

Ramdhari Singh Dinkar
Ramdhari Singh Dinkar

रामधारी सिंह दिनकर

‘दिनकर’ राष्‍ट्रीय सांस्‍कृतिक काव्‍यधारा के प्रमुख हस्‍ताक्षर हैं। इनके काव्‍य में राष्‍ट्रीयता की ओजस्‍वी, प्रभावशाली एवं क्रांतिकारी अभिव्‍यक्ति हुई है। इनकी प्रलयंकारी भावनाओं के पीछे समाज के मंगल की आकांक्षा सदैव सन्निहित रही है। वास्‍तव में दिनकर जी सामाजिक चेतना-सप्‍नन्‍न मानवतावादी एवं व्‍यक्तिवादी कवि हैं। इनकी उग्र राष्‍ट्रीयता के पीछे लोकमान्‍य तिलक, भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद जैसे बलिदानियों की प्रेरणा थी। दिनकर का काव्‍य ‘’भारतीय स्‍वतंत्रता-संग्राम, उसकी आशा-निराशा भरी, अनेक मंजिलों, साम्‍प्रदायिकता के उभार, स्‍वतंत्रता-प्राप्ति, महात्‍मा गांधी की कुर्बानी, भू-दान आंदोलन, सत्‍ताधारी दल के भोगवाद, राष्‍ट्रीय पुननिर्माण की गति की मंथरता, जनता की दुर्दशा, पूंजीवाद के बढ़ाव, भारत-सोवियत मैत्री, चीनी आक्रमण, बांग्‍लादेश की मुक्ति और अमरीकीकरण की प्रक्रिया की शुरूआत आदि का ज्‍वलंत अभिलेख है जो कभी धूमिल होने वाला नहीं है।‘’ (नंदकिशोर नवल, आधुनिक हिंदी साहित्‍य का इतिहास – पृष्‍ठ २८

makhanlal-chautarvediमाखनलाल चतुर्वेदी

एक भारतीय आत्‍मा’ के नाम से प्रसिद्ध माखनलाल चतुर्वेदी ऐसे राष्‍ट्रीय कवि हैं जो ‘’शरीर से योद्धा, ह्दय से प्रेमी, आत्‍मा से विह्वल भक्‍त और विचारों से क्रांतिकारी हैं।‘’ (दिनकर के विचार – हिंदी साहित्‍य की प्रवृत्तियां, जयकिशन प्रसाद, पृष्‍ठ -३२९) राष्‍ट्रीय जागरण का प्रथम स्‍पंदन इनकी रचनाओं में मिलता है। वे भारत की विशाल आत्‍मा के उत्‍पीड़न, कथा और विवशता से द्रवित होकर राष्‍ट्र के कण-कण में बलिदान, आत्‍मोसर्ग और विदेशी सत्‍ता के विरुद्ध प्रतिशोध की भावनाएं जगाने में सदैव दिन-रात लीन रहते थे। ‘पुष्‍प की अभिलाषा’ इनकी राष्‍ट्रीयता और बलिदान की भावना से प्रेरित अनुपम रचना है। वास्‍तव में इनका काव्‍य राष्‍ट्रीय जीवन की वह पदावली है जिसके विकराल  गर्जन से सुप्‍त समाज चैतन्‍य हो उठता है। श्री कन्‍हैयालाल सहल कहते हैं:- ‘’उदात्‍त आदर्शों की रक्षा के लिए जो कवि बलिदान की भावना को लेकर मृत्‍यु की जयजयकार कर रहा हो, जो केवल स्‍वप्‍न लोक में ही नहीं, वास्‍तविक जगत में भी राष्‍ट्रीय पथ का सच्‍चा पथिक रह चुका हो और जेलों में ही जिसके सूर्य उगे और अस्‍त हुए हों उस कवि के काव्‍य की ओजस्विता और मार्मिकता का तो भला कहना ही क्‍या?’’ (देखिये डा0 सरजू प्रसाद मिश्र – आधुनिक हिंदी कविता के चार दशक – पृष्‍ठ -२१६)

Balkrishan Sharma Naveenबालकृष्‍ण शर्मा ‘नवीन’

‘नवीन’ जी एक ऐसे कवि थे जिनमें एक साथ हमें कबीर की मस्‍ती, फक्‍कड़पन, उत्‍सर्ग भाव तथा भाषा की डिक्‍टेटरी, सूर की कोमलता और तुलसी का औदात्‍य मिलता है। ऐसा कवि न उनके पहले हुआ, न उनके बाद। इनकी राष्‍ट्रीयता अति क्रांतिकारी है, जिस पर चंद्रशेखर आज़ाद और भगत सिंह जैसे दुस्‍साहसिक राष्‍ट्रीय क्रांतिकारियों का प्रभाव लक्षित होता है। ‘’विप्‍लव गायन’’ इनकी प्रमुख क्रांतिकारी कविता है। नवीन जी के काव्‍य में देश का आहत अभिमान बौखला उठा। नवीन स्‍वतंत्रता संग्राम के कर्मठ सैनिक भी रहें है और इनका जीवन निर्भीक शौर्य का प्रतीक जिससे इनका काव्‍य सदैव आलोकित दिखाई पड़ता है।

Subdhara Kumari Chauhanसुभद्राकुमारी चौहान

सुभद्राकुमारी चौहान अपने युग की अशांत तरंगों में भयंकर झनझनाहट उत्‍पन्‍न करने वाली हिंदी की सर्वाधिक मुखर कवयित्री हुई हैं। इनका समूचा काव्‍य राष्‍ट्रीयता के ताने-बाने से ओत-प्रोत है। गांधीजी की अहिंसा से ये विशेष रूप से प्रभावित थी लेकिन ‘रानी लक्ष्‍मीबाई’ की वीरोचित विरुदावली गाकर उन्‍होंने देश के सुप्‍त ह्दय में ऐसा ज्‍वार ला दिया जिससे उसका कण-कण बलिदान के लिए उत्‍सुक हो उठा। ‘मुकुल’ और ‘त्रिधारा’ इनकी राष्‍ट्रीय कविताओं के प्रमुख संग्रह हैं। इनकी लोकप्रियता का एक ओर कारण इनकी सरल अभिव्‍यक्ति शैली भी थी। देश की स्‍वतंत्रता के लिए इन्‍होंने अनेक बार जेल यात्रायें भी की और काव्‍य द्वारा अपने उत्‍कट देश प्रेम, साहस और बलिदान को अभिव्‍यक्ति प्रदान की।

Maithisilisharan Guptaमैथिलीशरण गुप्‍त

हिंदी साहित्‍य में राष्‍ट्र कवि के रूप में गुप्‍त जी की ख्‍याति सर्वविदित है, यद्यपि ये मूलत: द्विवेदी युगीन कवि हैं लेकिन ‘राष्‍ट्रीय-सांस्‍कृतिक कविता’ के कवियों में भी इनकी गिनती की जाती है क्‍योंकि गुप्‍त जी का समस्‍त काव्‍य राष्‍ट्र-प्रेम की भावना से ओत-प्रोत हैं। सत्‍याग्रह, अहिंसा, विश्‍वप्रेम और श्रमजीवियों के प्रति लगाव और सम्‍मान की भावना इनके काव्‍य की प्रमुख विशेषतायें हैं। इनकी कविता में प्राचीन के प्रति पूज्‍यभाव और नवीन के प्रति उत्‍साह दोनों की झलक दिखलाई पड़ती है। ‘भारत-भारती’ में विदेशी शासन से मुक्ति पाने की जो प्रेरणा है उसके बलबूते पर इन्‍हें राष्‍ट्र-प्रेम की भावना जगाने वाले सबसे शक्तिशाली कवि के रूप में हिंदी जगत में प्रसिद्धि मिली, ये सच्‍चे अर्थों में राष्‍ट्रकवि हैं।

Shyamsaran Guptaसियारामशरण गुप्‍त

सियारामशरण गुप्‍त मैथिलीशरण गुप्‍त के अनुज थे। राष्‍ट्रीय सांस्‍कृतिक काव्‍यधारा के विशिष्‍ट कवि थे। गांधीवाद का इन पर बहुत गहरा प्रभाव था। इनका काव्‍य अनुभूति और आस्‍था का काव्‍य है। संघर्ष के उस युग में भी अहिंसा, प्रेम सद्-भाव और शांति का पुनीत स्‍वर इनके काव्‍य में निरंतर प्रतिध्‍वनित होता रहा। ‘मौर्य-विजय’, ‘पाथेय’, ‘आत्‍मोत्‍सर्ग’,   ‘उन्‍मुक्‍त’, ‘नकुल’, ‘बापू’ इनकी प्रमुख रचनाएं हैं।

वैयक्तिक कविता: प्रवृत्ति-विश्‍लेषण

छायावाद युग के अंतिम चरण में हिंदी कविता के क्षेत्र में छायावाद से भिन्‍न व्‍यक्तिगत सुख-दु:ख और हर्ष-विषादों की भूमिका में निर्मित तथा प्रेम की स्‍थूल मांसल अभिव्‍यक्त्‍िा करने वाली जिस व्‍यक्तिपरक कविता के दर्शन होते हैं उसे उत्‍तर-छायावाद की ‘वैयक्तिक कविता’ के नाम से पुकारा जाता है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इसे ‘मस्‍ती, उमंग और उल्‍लास’ की कविता कहा है, कतिपय विद्वान इसे ‘हालावाद’, जवानी का काव्‍य’, ‘मस्‍तीका काव्‍य’, आदि नामों से भी पुकारते हैं। ‘’छायावाद के मूल-स्‍त्रोत से आविर्भूत इस धारा ने प्रगतिवाद के लिए पथ-प्रशस्‍त किया। इस प्रकार यह प्रवृति छायावाद की अनुजा और प्रगतिवाद की अग्रजा है।‘’ (डा0 नगेन्‍द्र– आधुनिक हिंदी कविता की मुख्‍य प्रवृत्तियां– पृष्‍ठ ) 

‘’छायावादी काव्‍य जिस प्रकार स्‍थूल के प्रतिसूक्षम का विद्रोह सामंती मान्‍यताओं के प्रति व्‍यक्तिवाद का विरोध, शुष्‍कता के स्‍थान पर सरसता के प्रति आग्रह, अभिधा के स्‍थान पर लक्षणा एवं व्‍यंजना की स्‍थापना है, उत्‍तर-छायावादी काव्‍य उसी प्रकार आदर्श के प्रति यथार्थ का विद्रोह, भावुकता के प्रति बौद्धिकता की प्रतिक्रिया, सूक्ष्‍मता के स्‍थान पर मांसलता की स्‍थापना, उदात्‍तता के स्‍थान पर लघुता के प्रति मोह, शाश्‍वत के स्‍थान पर श्रम का महत्‍व, अलौकिकता के स्‍थान पर लौकिकता एवं मानवीयता के प्रति आग्रह है।‘’ (डा0 इंद्रनाथ मदन – आलोचना और साहित्‍य –पृष्‍ठ -५५-५६) युगीन परिवेश से प्रेरित वैयक्तिक कविता में सामाजिक रूढि़यों के सीधे नकार के रूप में जो संघर्ष अभिव्‍यक्‍त हुआ है उसमें आदर्श और यथार्थ का द्वंद्व है। इस कविता में मनुष्‍य अपने ह्दय की पुकार सुनता और सुनाता हुआ, अपनी भावनाओं की अभिव्‍यक्‍त करता है, सीधी, सरल एवं स्‍पष्‍ट अभिव्‍यक्ति शैली इसकी विशेषता है। जीवन की विषमता, अभाव और रूढि़यों के आतंक से प्रभावित ये कवि यथार्थ के प्रति विशेष जागरूक दिखाई पड़ते हैं। जीवन की विषमता से पीडि़त ये कवि क्षति-पूर्ति का उपाय ढूंढने के लिए गाने लगे। अपनी मस्‍ती में जीवन के मधु एवं गरल का पान करते हुए अपने नए आदर्श गढ़ने लगे।

आ0 हज़ारी प्रसाद द्विवेदी कहते हैं:- ‘’मस्‍ती का यह काव्‍य भारतीय इतिहास के उस दौर की देन है, जिसमें भारतीय स्‍वाधीनता-आंदोलन में युवकों की शिरकत से नया उबाल आ गया था। ये युवक अपने साथ नया सामाजिक आदर्श लेकर आये थे, यह एक खास बात थी।‘’ धीरे-धीरे व्‍यक्ति मानव के स्‍थान पर समाज-मानव का महत्‍व प्रतिष्ठित होता गया और सामाजिक अभ्‍युथान के प्रति आकर्षण भी बढ़ा। उमंग और मस्‍ती के इस काव्‍य में सामाजिक मंगलाकांक्षा का भी प्राधान्‍य था। (देखिये – नंदकिशोर नवल – आधुनिक हिंदी कविता का इतिहास, पृष्‍ठ २५५) (हज़ारी प्रसाद द्विवेदी का मत) इस प्रकार अनेक तरुण कवि यथार्थ प्रेरित, साम्‍यवाद प्रेरित नए जीवनादर्श और जन-मंगल के उत्‍साह भरे गीत गाते हुए सामने आए। हरिवंश राय बच्‍चन, रामेश्‍वर शुक्‍ल ‘अंचल’, भगवतीचरण वर्मा, नरेन्‍द्र शर्मा, आरसी प्रसाद सिंह इसके प्रमुख कवि हैं।

वैयक्तिक कविता की प्रवृत्तियाँ

वैयक्तिकता

‘वैयक्तिकता’, वैयक्तिक कविता की एक प्रमुख विशेषता है जहां कवियों ने बिना किसी आवरण के आध्‍यात्मिक अनुबंध के अपने मनोभावों को छायावादी कवियों की अपेक्षा अधिक स्‍पष्‍ट एवं ईमानदारी से अभिव्‍यक्‍त किया। वैयक्तिक अनुभूतियों की यह स्‍पष्‍ट एवं ईमानदार अभिव्‍यक्त्‍िा हिंदी साहित्‍य के लिए एक नयी वस्‍तु थी। ‘’छायावादी कविता भी प्राय: ‘मैं’के माध्‍यम से अपना अनुभव उभारती है और व्‍यक्तिवादी गीत-कविता भी। किंतु छायावाद का ‘’मैं’’ संकोच या मर्यादांतक अनुभव करने के कारण तीव्रता से आलोकित होने के स्‍थान पर मंद-मंद दीप्‍त होता है जबकि व्‍यक्तिवादी गीत कविता का ‘’मैं’’ अपने समूचे राग-विराग के साथ निव्‍यार्ज भाव से फूट चलता है।‘’ (डा0 रामदरश मिश्र – हिंदी कविता आधुनिक आयाम – पृष्‍ठ ६७)

इन कवियों में छायावादी कविता का – सा संकोच, रहस्‍यमयता और आदर्शवादिता नहीं है। साहस के साथ सीधे साफ़ तौर पर अपने भावों को व्‍यक्‍त करने की आकुलता है जो उन्‍हें हिंदी साहित्‍य में विशिष्‍ट बनाती है। ‘बच्‍चन’ के शब्‍दों में यह बात अधिक स्‍पष्‍ट हो जाएगी:-

        ‘’मैं छिपाना जानता तो जग मुझे साधू समझता
        शत्रु मेरा बन गया जय छल – रहित व्‍यवहार मेरा।‘’
                 (बच्‍चन – मधुकलश (बच्‍चन रचनावली) – पृष्‍ठ १६३)

‘स्‍व’ की महत्‍ता का अनुभव ही वैयक्तिक अनुभूतियों की स्‍पष्‍ट एवं ईमानदार अभिव्‍यक्‍त के पीछे छिपा साहस है जो इस काव्‍य की अन्‍ययतम विशेषता है।

प्रेमानुभूति की ‘व्‍यक्‍त्‍त स्‍वछंदता’

वैयक्तिक कविता में प्रेम की स्‍वछंद अभिव्‍यक्ति हुई है। छायावाद में भी प्रेम का स्‍वछंद रोमनी रूप देखने को मिलता है परंतु आध्‍यात्मिक आवरण से युक्‍त उनका प्रेम ‘अर्धव्‍यक्‍त’ ही रहा है जबकि व्‍यक्तिवादी कवियों ने प्रेम के उस ‘अर्धव्‍यक्‍त’ स्‍वरूप को ‘व्‍यक्‍त’ रूप में स्‍वीकार कर प्रेमानुभूतियों को बिना किसी दुराव-छुपाव के खुलकर प्रकट किया है। यहां प्रेम स्‍पष्‍ट रूप से लौकिक है, प्रत्‍यक्ष है इसलिए उसका उल्‍लास और व्‍यथा भी मूर्त और स्‍पष्‍ट है। इनका हर्ष विषाद न तो आदर्श का छल ओढ़ता है और न धरती-आकाश के बीच झूलता है, वह शुद्ध धरती पर यात्रा करता है, धरती के परिवेश के बीच। मस्‍ती या मादकता का आवेग, सुंदर के प्रति आकर्षण, उसकी प्राप्ति की आकांक्षा तथा इस प्रयत्‍न की असफलता से उत्‍पन्‍न निराशा, उदासी, अवसाद तथा जीवन के अनुभवों की अकुंठ अभिव्‍यक्ति इस धारा की प्रमुख विशेषता है। अपने फक्‍कड़पन में इन्‍हें जगत या लोकपवादों की कोई चिंता नहीं है। भगवतीचरण वर्मा कहते हैं:- 

        ‘’उस ओर, जहां उन्‍मत्‍त प्रणय है लोक-लाज को छोड़ चुका।‘’
        उस ओर जहां स्‍वच्‍छंद समय सुध-बुध के बंधन तोड़ चुका।
———
        शाश्‍वत असीम में चलना है निज सीमा के उस ओर प्रिए।‘’ 

यहां असीम शब्‍द – मर्यादा के पार की दुनिया है। यह छायावादियों वाला ‘असीम’ (अलौकिक) नहीं है। बच्‍चन भी यही बात कहते हैं: ‘इस पार प्रिये मधु है, तुम हो, उस पार न जाने क्‍या होगा।‘ 

हिंदी साहित्‍य में लौकिक धरातल पर प्रेम की इतनी स्‍वच्‍छंद, स्‍पष्‍ट एवं सरस अभिव्‍यक्ति अन्‍यत्र नहीं हुई है। सामाजिक आदर्शों एवं बंधनों की परवाह किये बिना ये कवि खुलकर अपने प्रेमानुभव को व्‍यक्‍त करते हैं:

        ‘’बहुत दिनों तक दूर रह लिए। आओ अंक मिलान कर ले
        विरह व्‍यथा के दिन सुमिरन कर दृढ़त्‍तर आलिंगन भर लें।‘’
                        (नरेन्‍द्र शर्मा – प्रभात फेरी – पृष्‍ठ ५८)

निराशा, उदासी एवं एकाकीपन

निराशा, उदासी एवं एकाकीपन के भाव इस काव्‍यधारा में प्रखर रूप में व्‍यक्‍त हुए हैं। यह निराशा, उदासी, एकाकीपन के ये भाव केवल प्रेमजन्‍य ही नहीं अपितु जीवन के अन्‍य संदर्भों से भी जुड़े हुए हैं क्‍योंकि देश की पराधीनता, सामाजिक रूढि़यों, आर्थिक रिक्‍तता के भयंकर एहसास से गुजरता हुआ संवेदनशील कवि बार-बार स्‍वयं को टूटता हुआ ही पा रहा था। आदर्श और यथार्थ के बीच का द्वंद्व उसे विचलित कर रहा था उसमें व्‍यापक जीवन दृष्टि का अभाव सा प्रतीत हो रहा था। चारों ओर फैले अवसाद के कारण वह आत्‍मपीड़न टूटन, कुण्‍ठा एवं निराशा के गीत गाने को विवश हो गया, अत: हम कह सकते हैं कि ‘’व्‍यक्तिवादी कविता का प्रमुख स्‍वर निराशा का है, अवसाद का है, थकान का है, टूटन का है।‘’ चाहे किसी भी परिप्रेक्ष्‍य में हो। (डा0 रामदरश मिश्र – हिंदी कविता का आधुनिक आयाम – पृष्‍ठ -४०)

        ‘’मैं प्रेम प्‍यार से वंचित हूं, मैं अपने भावीसे निराश
        मैं हूं मुरझाया सा प्रसून, कोई न कहीं भी आस-पास।‘’
                   (आरसी प्रसाद सिंह – संचयिता – पृष्‍ठ- ३२)

नियतिवाद, क्षणवाद, मृत्‍युकामना

जीवन के विवधि क्षेत्रों में मिलने वाली पराजय, असफलता, अभावग्रस्‍तता, अनास्‍था का भाव, निराशा एकाकीपन के फलस्‍वरूप ये कवि नियति पर विश्‍वास करने के लिए बाध्‍य हो गए। जो कल तक सारे आलम को धूल में उड़ाते हुए चलना चाहते थे वे नियति के समक्ष स्‍वयं को विवश पा कह उठते हैं कि ‘’मुझको झुकाते जा रहे है, निष्‍ठुर नियति के हाथ’ (नरेन्‍द्र शर्मा – गदली वन – पृष्‍ठ १७१) वहीं बच्‍चन कहते हैं कि – ‘’हम जिस क्षण में जो करते हैं, हम बाध्‍य वही हैं करने को’’ (बच्‍चन – मधुकलश – पृष्‍ठ- १२७)

जीवन की क्षणभंगुरता में विश्‍वास रखने के कारण इनकी दृष्टि भोगवादी बन गई, लेकिन जब कवि अपनी इच्‍छानुसार जीवन का भोग नहीं कर पाते और सवर्त्र निराशा और अतृप्ति के कारण, वे जीवन में तंग आकर मृत्‍यु की कामना करने लगते हैं और कह उठते हैं कि ‘’फिर न पड़े जगती में आना, फिर न पड़े जगती से जाना, —— आओ, सो जायें, मर जायें।‘’ (बच्‍चन – निशा निमंत्रण – पृष्‍ठ- १७०) इस प्रकार जीवन से हार की परिणति इस कविता में नियतिवाद, क्षणवाद और मृत्‍युकामना के रूप में हुई है।

निरर्थकताबोध और आशा का स्‍वर

जीवन से संघर्ष करता हुआ मनुष्‍य जब बार-बार हार जाता है तो उसे अपने सब प्रयास व्‍यर्थ एवं अपना जीवन निरर्थक लगने लगता है और जीवन में कुछ न कर पाने का दु:ख कवि को सताता है।

        ‘’मैं जीवन में कुछ कर न सका……
        मैं ज्‍वाला लेकर आया था, पर जगती का तम हर न सका’’

(बच्‍चन – एकांत – संगीत – पृष्‍ठ- २३३, बच्‍चन रचनावली भाग-१) लेकिन नहीं भागता संघर्षों से, इसलिए इंसान बड़ा है की आशावादी सोच और अपनी अपराजेय शक्ति के बल पर वह अपनी प्रतिकूल परिस्थितियों से संघर्ष करता हुआ विजय की ओर अग्रसर होने लगा और कह उठा:

        ‘’है अंधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है।‘’
                  (बच्‍चन – सतरंगिनी पृष्‍ठ- ३३१ बच्‍चन रचनावली)

विद्रोह और प्रगतिशीलता

समाज, राजनीती, धर्म, मानव जीवन में जो कुछ असत, असुंदर एवं कुरूप था, उसके विरोध में इस युग के कवियों ने विद्रोह का स्‍तर ऊंचा किया और जागरण का शंखनाद किया। कहीं-कहीं पर इनकी कविता में प्रगतिवादी कविता सा विद्रोह ध्‍वनित हुआ है जैसे बच्‍चन के ‘बंगाल का काल’, नरेन्‍द्र शर्मा के ‘अग्निस्‍य, अंचल की ‘किरण बेला’, शम्‍भुनाथ सिंह के ‘मन्‍वन्‍तर’ आदि में लक्षित होने वाला विद्रोह का स्‍वर व्‍यक्तिगत अस्‍वीकृति तथा सामाजिक असंतोष दोनों रूपों में हैं। व्‍यक्तिगत अस्‍वीकृति में वह अपने को घेरने वाले सामाजिक, धार्मिक और संस्‍थागत बंधनों को ललकारता है। कवि कभी अभावग्रस्‍त, दीन-हीन शोषित समाज का चित्र अंकित करता है तो कभी शोषकों के विरूद्ध विद्रोह का स्‍वर ऊंचा करता है। जैसे भगवतीचरण शर्मा कहते हैं:

         ‘’वे मांसहीन, वे रक्‍तहीन, वे अन्‍न-हीन, वे वस्‍त्रहीन, वे सड़को पर सोने वाले, वे धूलि-धूसरित अति मलिन।‘’ (भगवतीचरण वर्मा – विस्‍मृति के फूल – पृष्‍ठ ४१)

समाजवादी विचारधारा के प्रभाव के स्‍वरूप ये कवि शोषण मुक्‍त वर्गहीन समाज की कल्‍पना के स्‍वप्‍न भी देखते हैं जहां सर्वत्र प्रेम का ही साम्राज्‍य हो और मानवता की स्‍थापना हो। अत: वे कहते हैं:-

        ‘’मुक्‍त हो संसार हिंसापात से संहार से
        मुक्‍त हो मानव – ह्दय संशय, मरण की भीति से
        प्रेम का साम्राज्‍य स्‍थापित हो, दया फूले-फले।‘’
                 (रामेश्‍वर शुक्‍ल ‘अंचल’ – शीलजायी – पृष्‍ठ २१)

देशप्रेम और राष्‍ट्रीयता की भावना

अपनी मस्‍ती, उमंग एवं उल्‍लास में मदमस्‍त ये कवि युगीन परिवेश के प्रति जागरूक थे, प्रगतिशीलता का स्‍वर, विद्रोह-भावना, धार्मिक-सामाजिक रूढि़यों का विरोध आदि के द्वारा वे देश के प्रति अपनी चिंता को भी व्‍यक्‍त कर रहे थे। एक ओर जहां राष्‍ट्रीय स्‍वाधीनता आंदोलन जोरों पर था तो ये कवि राष्‍ट्रीय भावना से, देश-प्रेम से कैसे विमुख रह सकते थे। अत: इन कवियों ने तद्युगीन आशा-निराशा से भरी परिस्थितियों को देश और विश्‍व के व्‍यापक यथार्थ से जोड़कर उसे जनता तक पहुंचाया और साहित्‍य की सार्थकता को सिद्ध किया। कवि अपने संकुचित ‘स्‍व’ के घेरे से निकल ‘पर’ का विश्‍व निहारने लगा। ‘धार के इधर-उधर’ में बच्‍चन कहते हैं:-

        ‘’कर रहा हूं आज मैं आजाद हिन्‍दुस्‍तान का आह्वान’’
——
        भारत माता के बेटे हम चलते सीना तान के।‘’
                       (बच्‍चन-धार के इधर-उधर – बच्‍चन रचनावली-२, पृष्‍ठ १३८) 

सहज-सरल अभिव्‍यक्ति प्रणाली

सहज-सरल अभिव्‍यक्ति प्रणाली इस काव्‍य की अन्‍ययतम विशेषता हैं। इसकी भाषा में एक खुलापन है, पारदर्शिता है, छायावादी वायवीपन की कमी है, तत्‍सम बहुलता की कमी है। बच्‍चन की ‘मधुशाला’ तथा भगवतीचरण वर्मा की ‘दीवानो की हस्‍ती’ कविता में उर्दू शब्‍दावली,लय और मुहावरों के प्रयोग ने काव्‍यभाषा के खुलेपन और प्रवाहमयता को और भी समृद्ध किया। छंदों की विविधता और गीतों की रमणीयता इसके आकर्षक तत्‍व हैं। उर्दू की रुबाइयों, गज़लों का प्रयोग भी इस कविता में मिल जाता है। सीधे-सादे शब्‍दों, परिचित चित्रों और सहज कथनभंगिमा के द्वारा ये कवि बड़ी सफाई से अपनी बात कह देते हैं इनकी अभिव्‍यक्ति शैली वायवीय और गढ़ी हुई नहीं है अपितु सामान्‍य जन के भोगे हुए यथार्थ के निकट है – रक्तिम, देखि-सुनी और भोगी हुई।

अंतत: हम कह सकते हैं कि वैयक्तिक कविता मानव-मन के द्वंद को चित्रित करती हुई सामाजिक, धार्मिक नीति-नियमों की जकड़बंदी को व्‍यक्ति के विकास में बाधक मान विद्रोहात्‍मक ध्‍वनि में रूढि़यों को ललकारते हुए व्‍यक्‍त हुई है जिसमें प्रेम की स्‍वछंद अनुभूति है, आशा है, निराशा है, संघर्षशीलता है, मानवीयता है, राष्‍ट्रीयता की भावना है। यह कविता अपनी मस्‍ती के मद में भी समाज के मंगल की आकांक्षा को संजोए हुए है, यही इसकी विशिष्‍टता है।

प्रमुख कवि

Harivansh Rai Bachanहरिवंशराय ‘बच्‍चन’

हरिवंशराय ‘बच्‍चन’ एक सशक्‍त नाम है – उत्‍तर-छायावादी काव्‍य परंपरा की व्‍यक्तिवादी काव्‍यधारा का। मानव-भावना, अनुभूति, प्राणों की ज्‍वाला तथा जीवन संघर्ष के आत्‍मनिष्‍ठ कवि बच्‍चन अनुभव-द्रवित भावनाओं के विद्युत-स्‍पर्शी प्रभाव, मंद्रसजल शब्‍द-संगीत की सम्‍मोहकता और कलागत सादगी एवं स्‍वच्‍छता की अतुल शक्ति से युक्‍त हैं। ‘मधुशाला’ इनकी कीर्ति का लौह स्‍तंभ है। इनके काव्‍य के आकर्षण को शब्‍दों में व्‍यक्‍त करना आसान नहीं है। गणपतिचन्‍द्र गुप्‍त कहते हैं कि – ‘’जब तक मानव-ह्दय में रागात्‍मकता का अवशेष रहेगा तब बच्‍चन की कविता का आकर्षण चिरंतन एवं चिरस्‍थायी रहेगा।‘ (संपादक रमेश गुप्‍त – बच्‍चननिकष – पर (भूमिका) पृष्‍ठ १५)

Narendra Sharmaनरेन्‍द्र शर्मा

प्रकृति-सौंदर्य, मानव-सौंदर्य और प्रेम-सौंदर्य के कवि हैं नरेन्‍द्र शर्मा। इनके गीतों का अपना वैशिष्‍ट्य है जिनमें चित्रात्‍मक है, आत्‍मीयता है, जीवंतता है। सामाजिक यथार्थ का चित्रण तथा विसंगतियों के विरुद्ध विद्रोही स्‍वर इनकी काव्‍य प्रधान विशेषताएं हैं। ‘प्रवासी के गीत’, ‘लाल चुनर’, ‘पलाश-वन’ आदि इनकी प्रमुख रचनाएं हैं।

Bhagawati Charan Varmaभगवतीचरण वर्मा

मस्‍ती, फक्‍कड़पन, जिंदादिली के साथ दीवानगी भी वर्माजी के माध्‍यम से हिंदी कविता में आई और इस तरह हिंदी कविता में स्‍वच्‍छंद कविता के नव-प्रवर्तन का श्रेय इन्‍हीं को हैं। युवावस्‍था के उत्‍साह में ये सारी दुनिया को अपने ठेंगे पर रखना चाहते थे। ‘’हम दीवानों की क्‍या हस्‍ती, हैं आज यहां कल वहां चले,’’ वर्मा जी की प्रसिद्ध पंक्तियां है। १९३६ के बाद इनकी कविताओं में सामाजिक यथार्थ प्रकट होने लगता है। ‘भैंसागाड़ी’ शीर्षक कविता इसका सशक्‍त प्रमाण है। 

Rameshvar Shuklaरामेश्‍वर शुक्‍ल ‘अंचल’

अंचल जी के काव्‍य में सौंदर्य और प्रेम की उपासना के साथ प्रेमजन्‍य वियोग, का करुण रोदन है। उन्‍होंने अपनी कविता में प्रेम का स्‍वच्‍छंद, मांसल एवं स्‍थूल चित्रण किया है। ‘अपराजिता’, ‘मधूलिका’, ‘किरण बेला’ इनकी प्रेमपरक रचनाएं हैं। ‘लाल चुनर’ में कवि ने प्रेम और क्रांतिमूलक प्रगतिशीलता का द्वंद्व दिखाया है। निश्‍छल अभिव्‍यक्ति के क्षेत्र में इनका कोई सानी नहीं है। उनकी दृष्टि में प्रेम जीवन का वह तत्‍व है जो जीवन के उस पार तक चलता है। इसी कारण उन्‍हें नंददुलारे वाजपेयी ने हिंदी की नवीन कविता का क्रांतिदूत कहा है। (नंदकिशोर नवल – आधुनिक हिंदी कविता का इतिहास) 

RP Parsad Singhआरसी प्रसाद सिंह

व्‍यक्तिवादी गीति कविता की सभी प्रवृत्तियां आरसी. प्रसाद सिंह के काव्‍य में लक्षित होती हैं। प्रेम, निराशा, वेदना, सामाजिक चेतना आदि की स्‍पष्‍ट एवं ईमानदार अभिव्‍यक्ति इनके काव्‍य की विशेषता है। ‘कलापी’, ‘संचयिता’, ‘जीवन और यौवन’, ‘पाच्‍चजन्‍य’, और ‘प्रेमगीत’ इनके काव्‍य के आलोक स्‍तम्‍भ हैं। 

निष्‍कर्ष

अंतत: हम कह सकते हैं कि छायावाद की छाया में पल्‍लवित एवं पुष्पित होने वाली ‘उत्‍तर-छायावादी’ कविता हिंदी साहित्‍य का एक महत्‍वपूर्ण पड़ाव है जहाँ सन् १९३० के आसपास छायावादी काव्‍य में ही कुछ ऐसी प्रवृत्तियां उभर रही थी जिसमें कवि एक ओर छायावाद की वायवीयता और ‘उस पार’ से मुक्‍त होकर ठोस अनुभव के धरातल पर ‘इस पार’ की रचना कर रहे थे तो वहीं दूसरी ओर स्‍वतंत्रता-आंदोलन की प्रखरता में क्रांतिकारियों की धर-पकड़ और उनहें फांसी पर लटकाया जाना आदि से कवियों की फक्‍कड़ाना, मस्‍ती, क्रांतिकारी भावना तीव्र हो उठी जिससे ‘उत्‍तर-छायावाद’ के दौर में काव्‍य चेतना दो दिशाओं की ओर अग्रसर हुई वैयक्तिक कविता और राष्‍ट्रीय सांस्‍कृतिक कविता। उत्‍तर-छायावाद हिंदी साहित्‍य में परिवर्तन का दौर था, सृर्जनात्‍मक उपलब्धि का नया आयाम था जिसने प्रगतिवाद के लिए ठोस भूमि तैयार की। ‘उत्‍तर-छायावाद’, को ‘प्रेम के राग’ और ‘विद्रोह की आग’ का काव्‍य कहना गलत न होगा।

स्‍वमूल्‍यांकन प्रश्‍नमाला:

बहुविकल्‍पीय प्रश्‍न

(१) उत्‍तर छायावाद की राष्‍ट्रीय-सांस्‍कृतिक धारा के प्रमुख कवि कौन हैं?
      क) मतिराम      ख) रामधारी सिंह दिनकर     ग) भारतेंदु हरिश्‍चंद्र     घ) आरसी प्रसाद सिंह

(२) ‘विप्‍लवगायन’ किसकी रचना है?
      क) भगवतीचरण वर्मा     ख) बच्‍चन     ग) बालकृष्‍ण शर्मा ‘नवीन’     घ) दिनकर

(३) ‘मधुशाला’ के रचियता कौन हैं?
      क) बच्‍चन     ख) रामकुमार वर्मा     ग) भगवतीशरण वर्मा     घ) महादेवी वर्मा 

(४) ‘एक भारतीय आत्‍मा’ नाम से विख्‍यात कवि कौन हैं?
      क) सियाराम शरण गुप्‍त     ख) मैथिलीशरण गुप्‍त     ग) दिनकर     घ) माखन लाल चतुर्वेदी

(५) वैयक्तिक कविता को ‘मस्‍ती, उमंग और उल्‍लास का काव्‍य कहने वाले विद्वान कौन हैं?
      क) आ0 हजारी प्रसाद द्विवेदी     ख) आ0 रामचन्‍द्र शुक्‍ल     ग) डा0 नगेन्‍द्र     घ) डा0 बच्‍चन सिंह

(उत्‍तर   १), -ख, २)-ग, ३)- क, ४)- घ, ५)- क) 

लघु-स्‍तरीय प्रश्‍न 

१) प्रणय की स्‍वच्‍छंद अभिव्‍यक्ति वैयक्तिक कविता की विशेषता है, स्‍पष्‍ट करें?
२) ‘’राजनीतिक उथल-पुथल ने छायावाद को उत्‍तर-छायावाद की ओर उन्‍मुख कर दिया।‘’ तर्क सहित उत्‍तर दें।
३) ‘राष्‍ट्र’ शब्‍द को स्‍पष्‍ट करें। 

दीर्घ प्रश्‍न 

१) ‘उत्‍तर-छायावाद’ के विकास में युगीन परिवेश की भूमिका की विस्‍तृत चर्चा करें।
२) राष्‍ट्रीय-सांस्‍कृतिक काव्‍यधारा के आलोक में स्‍पष्‍ट करें कि यह ‘’राष्‍ट्रीय-चेतना की ओजस्‍वी एवं रागात्‍मक अभिव्‍यक्‍त का काव्‍य है।‘’
३) ‘’वैयक्तिक गीतिकविता’’ की प्रवृत्तियों का परिचय दें। 

संदर्भ ग्रंथ-सूची 

१) डा0 अमरनाथ – हिंदी आलोचना की पारिभाषिक शब्‍दावली – प्रथम संस्‍करण २०१२
२) कमला प्रसाद पांडेय – छायावादोत्‍तर हिंदी काव्‍य की सामाजिक और सांस्‍कृतिक पृष्‍ठभूमि – प्रथम संस्‍करण – १९७२
३) डा0 देवराज शर्मा – पथिक – हिंदी कविता की राष्‍ट्रीय काव्‍य धारा – एक समग्र अनुशीलन – प्रथम संस्‍करण- १९७२
४) डा0 नगेन्‍द्र – हिंदी साहित्‍य का इतिहास
५) डा0 नगेन्‍द्र – आधुनिक हिंदी कविता की मुख्‍य प्रवृत्तियां – तृ‍तीय संस्‍करण – १९९९
६) नंदकिशोर नवल –आधुनिक हिंदी कविता का इतिहास – प्रथम संस्‍करण – २०१२
७) आ0 नंददुलारे वाजपेयी – आधुनिक साहित्‍य सृजन और समीक्षा – प्रथम संस्‍करण –  २००१
८) बच्‍चन सिंह – हिंदी साहित्‍य दूसर इतिहास
९) आ0 रामचन्‍द्र शुक्‍ल – हिंदी साहित्‍य का इतिहास – विश्‍वविद्यालय प्रकाशन २०१३
१०) डा0 राम दरश मिश्र – हिंदी कविता – आधुनिक आयाम – प्रथम संस्‍करण – १९७८
११) राज वधवा – आधुनिक हिंदी काव्‍य और नैतिक चेतना
१२) लक्ष्‍मीसागर वार्ष्‍णेय – साहित्‍य चिंतन – प्रथम संस्‍करण – १९४९
१३) विजयमोहन सिंह – बीसवीं शताब्‍दी का हिंदी साहित्‍य – प्रथम संस्‍करण २००५
१४) शिवदान सिंह चौहान – हिंदी साहित्‍य के अस्‍सी वर्ष – सं – २००७
१५) सरजू प्रसाद मिश्र – हिंदी कविता के चार दशक (१९२० से १९६० तक) –प्रथम संस्‍करण – १९७४ 

हिंदी डी ० सी ० – 1
सेमेस्टर – ३
हिंदी साहित्य का इतिहास (आधुनिक काल)
डी.यू., बी ए, हिंदी (ऑनर्स)
उत्तर छायावाद : परिवेश और प्रवृतियां
अध्याय लेखक: डॉ. अनु शर्मा
कॉलेज / विभाग – तदर्थ प्रवक्ता, लक्ष्मी बाई कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय

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Dr. Anu Sharma
Dr. Anu Sharmahttp://www.saralstudy.com
Dr.Anu Sharma is a Teacher and Professor by profession, working exclusively for the Department of Hindi at Laxmibai Mahavidyalaya. His hold on Hindi literature is amazing
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